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________________ __'बुद्धिद्दिढे अत्थे' इत्यत्र बुद्धिर्मतिज्ञानं व्याख्यातम्, तन्मतेन 'इयरत्थ वि होज्ज सुयं उवलद्धिसमं जइ भणेज्जा' इत्युत्तरार्धगतस्येतरत्रशब्दस्य मतिज्ञानमेव वाच्यम्, शब्दसहितमतेर्द्रव्यभावश्रुतत्वेनोक्तत्वात्, तदितरस्य मतिज्ञानस्यैव तत्र संभवात्। ततश्च तद्व्याख्यानमनूद्य दूषयति- इतरत्रापि मतिज्ञाने श्रुतं भवेद् यधुपलब्धिसमं भाषेत इति यत्तैरुच्यते, तदयुक्तम्, यतो हन्त! यद् मतिज्ञानं, तत् कथं श्रुतं भवितुमर्हति?। श्रुतं चेत्, कथं वा तद् मतिर्भवेत्?। कुतः पुनरित्थं न भवति?, इत्याह- मतिश्रुतयोर्यत् स्वकीयं लक्षणं, कर्म चाऽऽवारकं, तयोर्भेदेनाऽऽगमे प्रतिपादनात्। यदि च यदेव मतिज्ञानं तदेव श्रुतम्, यदेव च श्रुतं तदेव मतिज्ञानं स्यात्, तदा लक्षणाऽऽवरणभेदोऽपि तयोर्न स्यात् // इति गाथार्थः॥ 135 // / तदेव 'बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ' इत्यादिमूलगाथां मति-श्रुतभेदप्रतिपादनपरतया व्याचिख्यासोः परस्य ‘मति वश्रुतं न युज्यते' इति प्रतिपादितम्। यदि तु द्रव्यश्रुतं साऽभ्युपगम्यते तदा न दोषः, इत्युपदर्शयन्नाह--- अहव मई दव्वसुयत्तमेउ भावेण सा विरुज्झेजा। जो असुयक्खरलाभो तं मइसहिओ पभासेज्जा॥१३६॥ ___ व्याख्याः - (गाथा-128 में) बुद्धि-दृष्ट अर्थ इत्यादि कथन में बुद्धि को मतिज्ञान रूप में मान कर जो व्याख्यान किया गया, उसमें 'अन्यत्र श्रुत हो सकता है यदि उपलब्धि के समान ज्ञान को कहा जा सके' इस उत्तरार्द्ध कथन में आए 'अन्यत्र' का 'अन्य प्रकार के मतिज्ञान में' यही अर्थ है, क्योंकि वहीं शब्दसहित मति का द्रव्यश्रुत व भावश्रुत रूप में होना कहा गया है, अतः उससे अन्यत्र . का ‘अन्य मतिज्ञान में' यही अर्थ संगत हो सकता है। अब अन्य व्याख्यान को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करते हुए उसमें दोष बता रहे हैं- उन्होंने जो यह कहा कि 'अन्य मतिज्ञान में भी श्रुत' हो सकता है, बशर्ते उपलब्धि-सम को बोला जा सके- यह युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि जो मति ज्ञान है, वह श्रुत कैसे हो सकता है? यदि वह श्रुत है तो मतिज्ञान कैसे है? ऐसा किस प्रकार नहीं हो सकता- इसमें (तर्क या हेतु) कहा- मति व श्रुत का जो अपनाअपना लक्षण है- अपने-अपने आवरण कर्म से युक्त होना, इस प्रकार दोनों में परस्पर भेद आगम में प्रतिपादित किया गया है। यदि जो मतिज्ञान है, वही श्रुतज्ञान होता, और जो श्रुत होता वही मतिज्ञान . होता तो लक्षण व आवरण सम्बन्धी भेद नहीं (प्रतिपादित) होता // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 135 // इस प्रकार मति व श्रुत सम्बन्धी अन्तर के प्रतिपादन की दृष्टि से (128वीं) मूल गाथा का किसी अन्य द्वारा जो व्याख्यान किया, उसको लक्ष्य कर यह सिद्ध किया कि मति का भावश्रुत होना युक्तिसंगत नहीं है। हां, यदि उस (मति) को द्रव्यश्रुत रूप में स्वीकार करें तो कोई दोष (विरोध) नहीं है- इसी बात को अग्रिम गाथा में कह रहे हैं (136) अहव मई दव्वसुयत्तमेउ भावेण सा विरुज्झेज्जा / जो असुयक्खरलाभो तं मइसहिओ पभासेज्जा // Ma 210 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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