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________________ सह उवलद्धीए वा उवलद्धिसमं तया व जंतुल्लं। . जंतस्समकालं वान सव्वहा तरइवोत्तुंजे॥१३१॥ [संस्कृतच्छाया:-सहोपलब्ध्या वोपलब्धिसमं तया वा यत् तुल्यम्।यत् तत्समकालं वा न सर्वथा तरति (शक्नोति) वक्तुम्॥] यद् भाषणमुपलब्ध्या सह वर्तते तदुपलब्धिसमम्, प्राकृतशैलीनिपातनात् सहस्य समभावः, या या श्रुतोपलब्धिस्तया तया सह यद् भाषणं तदुपलब्धिसममित्यर्थः, 'तया व जं तुल्लं ति'। तया वोपलब्ध्या यत्तुल्यं समानं तदुपलब्धिसमं- यावती काचिच्छुतोपलब्धिस्तत्तुल्यं तत्संख्यं यद्भाषणं तद् वोपलब्धिसममित्यर्थः। 'जं तस्समकालं वेति'। तयोपलब्ध्या समकालं वा यद् भाषणं तदुपलब्धिसमम्, यथा मध्ये शूलं वेदयतस्तत्समकालमेवाऽन्यस्मै तद्व्यथाकथनम्, एवमन्तः सर्वामपि श्रुतोपलब्धिमनुभवतस्तत्समकालमेव यद् भाषणं तद् वोपलब्धिसममिति भावः। किं बहुना?, सर्वथा सर्वस्मिन्नपि समासविधावयं तात्पर्यार्थः। कः?, इत्याह- श्रुतज्ञानी यावच्छ्रुतबुद्ध्या समुपलभते, तावत् सर्वं न तरति न शक्नोति वक्तुम्। 'जे' इत्यलङ्कारमात्रे // इति गाथार्थः॥१३१॥ . (131) सह उवलद्धीए वा उवलद्धिसमं तया व जंतुल्लं। जं तस्समकालं वा न सव्वहा तरइ वो जे॥ [(गाथा-अर्थः) उपलब्धि के साथ, या उपलब्धि के तुल्य या उपलब्धि के (समान) काल में, किसी भी रूप में (समास-विधि करने पर) (श्रुतज्ञानी समस्त श्रुतबुद्धि-उपलब्ध पदार्थों को) कह नहीं सकता।] व्याख्याः - (उपलब्धिसम पद में अनेक समास सम्भव हैं, जैसे-) जो 'उपलब्धि के साथ विद्यमान हो'। यहां प्राकृतशैली के अनुरूप 'सह' (साथ) के स्थान पर 'सम' यह निपातनरूप आदेश हुआ है। अर्थ होगा कि जो-जो श्रुतोपलब्धि है, उस-उसके साथ बोलना। (तया वा यत् तुल्यम्)(दूसरी समासविधि के अनुसार) श्रुतोपलब्धि के समान, (इस प्रकार तृतीया तत्पुरुष समास है), अर्थात् उपलब्धि के जो तुल्य, समान हो। अर्थ होगा- जितनी मात्रा या संख्या में, जो कोई भी श्रुतोपलब्धि है, उसके तुल्य मात्रा या संख्या में होने वाला भाषण। (यत् तत्समकालम्-) (तीसरा अर्थ यह होगा) उस उपलब्धि के समकाल में किया जाने वाला भाषण, जैसे ज्यों ही शूल-वेदना हुई, ठीक उसी समय अन्य को अपनी व्यथा को कह देना। तात्पर्य यह है कि अन्दर जो भी श्रुतोपलब्धिअनुभूतं हुई, उसी अनुभव के समय में ही जो बोलना है, वह उपब्धिसम भाषण है। अधिक क्या कहें? सर्वथा समस्त समास-विधियों के स्वीकार करने पर, अर्थात् कोई भी समासविधि स्वीकार करें, तो भी -यह तात्पर्य है। कौन क्या नहीं कर सकता? इसी को स्पष्ट कर रहे हैं- श्रुतज्ञानी जितना श्रुतबुद्धि से (ज्ञान) उपलब्ध करता है, उन सभी को- जो उपलब्धिसम है- बोल नहीं सकता || गाथा में (अन्त में आए) 'जे' यह पद आलंकारिक है, उसका कोई अर्थ नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 131 // / -- विशेषावश्यक भाष्य - - - - ---- 205
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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