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________________ तदेवमवधारणविधिना श्रोत्रावग्रहादीनां मतित्वं समर्थितम्, यदि वा 'सेसयं तु मइनाणं' इत्यत्र योऽसौ तुशब्दः, ततोऽपि तेषां तत् समर्थ्यत इति दर्शयन्नाह तुसमुच्चयवयणाओवकाई सोइन्दिओवलद्धी वि।। मइरेवं सइ सोउग्गहादओ हुन्ति मइभेया॥१२३॥ [संस्कृतच्छाया:- तुसमुच्चयवचनाद् वा काचित् श्रोत्रोन्द्रियोपलब्धिरपि। मतिरेवं सति श्रोत्रावग्रहादयो भवन्ति मतिभेदाः॥] 'सेसयं तु मइनाणं' इत्यत्र योऽसौ तुशब्दः समुच्चयवचनः, ततश्च किमुक्तं भवति?-शेषकं मतिज्ञानं, काचिदनपेक्षितपरोपदेशार्हद्वचना श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्च मतिज्ञानमित्येवं वा श्रोत्रावग्रहादयो भवन्ति मतिभेदाः। तथा च सति मतेरष्टाविंशतिभेदत्वं न परिहीयते, ततश्च 'न नाम सोउग्गहादओ बुद्धी' इत्यादि परप्रेर्यं प्रतिक्षिप्तमेव // इति गाथार्थः॥१२३॥ मूलगाथाया व्याख्यातशेष व्याख्यानयन्नाह इस प्रकार 'अवधारणा-विधी' के द्वारा श्रोत्रावग्रह आदि की मतिज्ञानरूपता का समर्थन कर दिया गया। (गाथा-117 में कहे गए) 'शेष तो मतिज्ञान हैं' इस कथन में आए 'तो' शब्द से भी उन (अवग्रहादि) की मतिज्ञानरूपता का समर्थन होता है- इसी तथ्य को (अग्रिम गाथा में) कह रहे हैं (123) तुसमुच्चयवयणाओ व काई सोइन्दिओवलद्धी वि / / मइरेवं सइ सोउग्गहादओ हुन्ति मइभेया | [(गाथा-अर्थः) (पूर्व गाथा-117 में कहा गया है कि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि को छोड़कर शेष ज्ञान तो मतिज्ञान है। इस कथन में आए) समुच्चयवाचक 'तो' इस पद से यह बता चुके हैं कि कोई श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि भी ‘मति' ज्ञानरूप होती है, ऐसी स्थिति में श्रोत्र-अवग्रहादि मतिभेद (के रूप में संगत) होते हैं।] .:: व्याख्याः - (पूर्व गाथा सं.117 में) 'शेष तो मतिज्ञान हैं' इस कथन में जो 'तो' पद है, वह समुच्चवाचक है। वैसा होने से क्या तात्पर्य निकलता है? (तात्पर्य यह निकलता है कि) शेष मतिज्ञान है, अर्थात् परोपदेश या अर्हद्वचन की अपेक्षा से रहित कोई श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि भी मतिज्ञान है, इस प्रकार श्रोत्र-अवग्रहादि मतिभेद (संगत) हो जाते हैं। इसी तरह, मति के भेदों की अट्ठाईस संख्या का भी व्याघात (निराकरण) नहीं होता। अतः ‘श्रोत्र-अवग्रहादि मति नहीं कहला पाएंगें' -इस प्रकार (गाथा-117 में) जो आक्षेप शंकाकार की ओर से लगाए गए हैं, उसका प्रत्युत्तर हो ही जाता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 123 // पूर्वोक्त मूल गाथा (117) के 'शेष' पद की व्याख्या की जा चुकी है, अब उस गाथा की (कुछ और अधिक अपेक्षित) व्याख्या कर रहे हैं ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------195 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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