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________________ समझ में आ जाए, चित्त की चंचलता का निरोध हो, आत्म-विशुद्धि हो, वीतरागता की प्राप्ति सम्भव हो, मैत्रीभाव का संवर्द्धन हो, वही 'ज्ञान' होता है (द्र. मूलाचार, 321-322) / इसी भाव को दशवैकालिक (द्वितीय चूलिका, विविक्तचर्या, गाथा-1) में इस प्रकार व्यक्त किया गया है कि केवली सर्वज्ञ तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट श्रुत वह है जिसे सुनकर पुण्यात्माओं को धर्म में मति (रुचि) उत्पन्न होती है (सुयं केवलिभासियं, जं सुणित्तु सुपुण्णाणं धम्मे उप्पज्जए मई)। वास्तव में जिनवाणी की सार्थकता इसी में है कि समस्त जगत् के प्राणियों की रक्षा रूप दया अर्थात् अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार हो- 'सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठाए पावयणं भगवया सुकहियं' (प्रश्नव्याकरण, संवर द्वार) / इसी दृष्टि से शास्त्रों में कहा गया है कि जिनवाणी एक अद्भुत अमृततुल्य औषधि है जो जरामरण आदि रोगों का नाश करती हुई समस्त दुःखों से छुड़ाती है और विषय-सुख से विरक्त करती है (मूलाचार-1367) / निष्कर्ष यह है कि अहिंसा धर्म से विपरीत कथन जिसमें हो, प्रमाणविरुद्ध प्रतिपादन हो, और जिसे पढ़ कर कषायों-मनोविकारों में वृद्धि हो तो वह शास्त्र 'आगम' की कोटि में परिगणित नहीं किया जा सकता, वस्तुत: वह कुशास्त्र ही है। यही कारण है कि अन्य परम्परा में मान्य एवं यज्ञ-हिंसा के प्रतिपादक जो भी ग्रन्थ हैं, उन्हें आगमाभास' (नकली आगम) कहा गया। आचार्य जिनसेन के मत में हिंसोपदेशक ग्रन्थ धर्मशास्त्र नहीं हो सकता, वह तो किसी धूर्त द्वारा रचा गया प्रतीत होता है (आदिपुराण, 39/23) | आ. शुभचन्द्र के शब्दों में इन्द्रियपूर्ति के पोषक ग्रन्थ कुशास्त्र हैं, वे धूर्त-रचित ही होते हैं (ज्ञानार्णव, 8/25/497) / जैन आगम-परम्परा : उद्भव व विकास तीर्थंकर वाणी 'अर्थरूप' आगम या अर्थागम का वाहिका होती है, जिसे गणधर शब्दात्मक या सूत्रागम का रूप देते हैं (आवश्यक नियुक्ति-192)। इसकी प्रमाणता का आधार तीर्थंकर-कृत होना है। सूत्र या आगम को (श्रुत) देवता का अधिष्ठान भी माना गया है (द्र. व्यवहारभाष्य, 3019), इससे इसके प्रति आचार्यों की ओर से पूज्यता की भावना ही व्यक्त की गई प्रतीत होती है। विशाल ज्ञान-वृक्ष के सीमित पुष्प : आगम ज्ञान अनन्त है। अर्थात् तीर्थंकर के 'केवल' ज्ञान में अनन्त पदार्थ और उनके अनन्त अवस्थाएं प्रतिबिम्बित होती हैं, और उस अनन्त ज्ञान का कुछ ही भाग जिनवाणी में अभिव्यक्त हो पाता है। जिनवाणी विकीर्ण विचारों की एक धारा होती है, गणधर उन्हें बुद्धि में ग्रहण कर उसका ग्रथन करते हैं -अर्थात् ग्रन्थ रूप प्रदान करते हैं। इसे स्पष्ट करने हेतु एक दृष्टान्त दिया गया है कि जैसे किसी बड़े वृक्ष पर आरूढ़ कोई व्यक्ति उस वृक्ष के कुछ पुष्पों को नीचे प्रक्षिप्त करता है। नीचे जमीन पर खड़े व्यक्ति उन पुष्पों को अपनी झोली या चादर में संगृहीत कर लेते हैं, और उन पुष्पों को समीचीन तरीके से परस्पर गूंथकर एक माला के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टान्त में ज्ञान-वृक्ष पर आरूढ़ व्यक्ति तीर्थंकर हैं। छद्मस्थता की भूमि पर स्थित गणधर उस वृक्ष RO900RRORB0R [22] RO908ROSROORO08
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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