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________________ हन्त! ततस्तर्हि तस्य विज्ञानस्य ब्रुवतः शृण्वतो वा यो भेदो विशेषः, स कः? इति कथ्यताम्, येन तद् वक्तुः श्रुतं, श्रोतुश्च मति: स्यात्? इति नास्त्यसौ विशेषः, शब्दविज्ञानत्वाविशेषादिति भावः। किञ्च, एवं सति श्रोतुरपि कदाचिच्छ्रुत्यनन्तरमेव ब्रुवतः सैव शब्दजनिता तन्मतिरवशिष्टा श्रुतं प्रसजति बेन्तस्स सुयं' 'सुणओ मई' इत्यभ्युपगमात्, ततश्च तदेवैकत्वं मति-श्रुतयोः, इति कोऽतिशयः कृतः स्यात्? इति। किञ्च, यदि शृण्वतः सर्वदैव मतिरित्ययमेकान्तः, तर्हि यदेतद् व्यक्तं सर्वत्रोच्यते- आचार्यपारम्पर्येणेदं श्रुतमायातमिति, तदसत् प्राप्नोति, तीर्थकरादर्वाक् सर्वेषामपि श्रोतृत्वेन मतिज्ञानस्यैवोपपत्तेः। अथ नैवम्, तर्खेकत्वं मति-श्रुतयोः // इति गाथार्थः // 120 // तदेवं केई बेन्तस्स सुयं' इत्यादि दूषयित्वा प्रस्तुतप्रकरणोपसंहारव्याजेन परमेव शिक्षयन्नाह रखते हुए, उसका प्रत्युत्तर भी दे रहे हैं- (यदि च)। (शंकाकार-) यदि ऐसा कहो कि चूंकि श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि शब्द में कारणभूत भी है और कार्यभूत भी है, इसलिए उपचार से श्रोत्रेन्द्रियउपलब्धि शब्द से वक्तृगत व श्रोतृगत शब्दविज्ञान का ग्रहण हो जाता है (और वह शब्दविज्ञान तो प्रासंगिक है ही), और वह शब्दविज्ञान वक्ता के लिए 'श्रुत' है और श्रोता के लिए मति है। (भाष्यकार का प्रत्युत्तर-) (आपकी अज्ञानता पर) बड़ा खेद है। आप जरा यह स्पष्ट करें कि आपके कथन के अनुसार उस शब्दविज्ञान को बोलते या सुनते हुए जो अन्तर हुआ है, वह आखिर क्या है जिसके कारण वह वक्ता के लिए 'श्रुत' और श्रोता के लिए ‘मति' हो जाता है? अर्थात् वस्तुतः वैसा कोई अन्तर है ही नहीं, क्योंकि शब्द-ज्ञान तो भेदरहित ही होता है- यह तात्पर्य है। . दूसरी बात, आपकी (वक्ता के लिए जो श्रुत, वही श्रोता के लिए मति-यह) बात मान भी ली जाय तो कभी श्रोता शब्द-श्रवण के बाद ही बोलने लगे तो वहां शब्दजनित भेदरहित मति से श्रुत की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, क्योंकि आप तो 'बोलने वाले के लिए श्रुत, और सुनने वाले के लिए मति'ऐसा अभी स्वीकार कर चुके हैं। तब मति व श्रुत की एकता ही सिद्ध होगी, उनमें अन्तर क्या रहा? एक और बात, यदि सुनने वाले को सर्वदा ‘मति' ज्ञान ही होता है- ऐसी आपकी एकान्त मान्यता है तो यह जो स्पष्ट रूप से (व्यवहार में) कहा जाता है कि “आचार्य-परम्परा से मुझे यह 'श्रुत' प्राप्त हुआ"- यह असत्य होने लगेगा, और तीर्थंकर के बाद सभी श्रोता हैं, उन्हें (आपके अनुसार तो) मतिज्ञान का होना ही संगत होगा, श्रुत ज्ञान तो नहीं। और अगर ऐसा नहीं, (तीर्थंकर के परवर्ती श्रोताओं को श्रुतज्ञान का भी होना मान्य है, तब) तो मति व श्रुत की एकता ही सिद्ध हुई। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 120 // ___ इस प्रकार, कुछ लोगों द्वारा प्रस्तुत समाधान में दोष बताकर, प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार करते हुए तथा उसके माध्यम से भाष्यकार शंकाकार को उपदेश (या सीख) भी दे रहे हैं May 192 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- ------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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