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________________ तथा पट-पुट-शकटादिरूपं घटेऽसदपि सत्त्वेनाऽयमभ्युपगच्छति सर्वैः प्रकारैर्घटोऽस्त्येव' इत्यवधारणात्, स्यादस्त्येव घटः' इत्यवधारणे तु स्याद्वादाश्रयणात् सम्यग्दृष्टित्वप्राप्तेः। तस्मात् सद्-असतोर्विशेषाभावादुन्मत्तकस्येव मिथ्यादृष्टेर्बोधोऽज्ञानम्। तथा विपर्यस्तत्वादेव भवहेतुत्वात् तद्बोधोऽज्ञानम्। तथा पशुवधहेतुत्वात् तद्बोधोऽज्ञानम्। तथा पशुवध-तिलादिदहनजलाधवगाहनादिषु संसारहेतुषु मोक्षहेतुत्वबुद्धेः, दया-प्रशम-ब्रह्मचर्याऽऽकिञ्चन्यादिषु तु मोक्षकारणेषुभवहेतुत्वाध्यवसायतो यदृच्छोपलम्भात् तस्याऽज्ञानम् / तथा विरत्यभावेन ज्ञानफलाभावाद् मिथ्यादृष्टेरज्ञानम् // इति गाथार्थः // 115 / / तदेवं प्रसङ्गः प्रतिपादितो हेतु-फलभावादपि मति-श्रुतयोर्भेदः, सांप्रतं भेदभेदात् तयोस्तमभिधातुमाह को स्वीकार करने के कारण सम्यग्दृष्टि मानना पड़ेगा। इसी प्रकार, वह पट (वस्त्र), पुट (दोना, प्याला), नट (नर्तक आदि), शकट (गाड़ी) आदि रूपों का- जिनका घट में सद्भाव नहीं हैसद्भाव भी स्वीकार करता है, क्योंकि वह 'सर्वथा, सभी दृष्टियों से, यह घट है ही'- इस प्रकार निश्चय किए हुए होता है (अर्थात् नास्तित्व धर्म को असद्भूत मान रहा होता है)। यदि उसे 'स्यात्कथंचित् (किसी दृष्टिविशेष की अपेक्षा से) घट है ही'- ऐसा अवधारण (निश्चयात्मक ज्ञान) हो तो स्यादवाद के आश्रयण कर लेने के कारण उसे सम्यग्दृष्टि मानना पड़ेगा। इसलिए (यह सिद्ध हआ कि) सत्-असत् में विवेक नहीं होने से उन्मत्त (विक्षिप्त-मन, पागल) व्यक्ति की तरह ही मिथ्यादृष्ठि का बोध अज्ञान रूप ही (सिद्ध होता) है। इसी तरह चूंकि मिथ्यादृष्टि का बोध सम्यक्ज्ञान (सन्मार्ग, मोक्षमार्ग से) विपरीत होने के कारण संसार-भ्रमण का कारण है, इसलिए वह अज्ञान रूप है। यह अज्ञानरूप बोध उसे पशु-वध आदि कार्यों में प्रवृत्ति का कारण बनता है, इसलिए भी वह 'अज्ञान' रूप ही है। इसी तरह, पशु-वध, तिल आदि दहन (द्रव्ययज्ञ), व जलादिस्नान (तीर्थस्नान) आदि को-जो संसार-भ्रमण के हेतु हैं, उन्हें मोक्ष- प्राप्ति का हेतु मानता है, और दया, प्रशम (शांति), ब्रह्मचर्य- आकिञ्चन्य (अपरिग्रह) आदि जो मोक्ष के कारण हैं, उन्हें संसार का हेतु मानता है, इस प्रकार यादृच्छिक (मनमाने ढंग से, कभी समीचीन-सम्यक् को सही जानता है, कभी उसे असम्यक् भी मान लेता है इस रूप में घटादि की) उपलब्धि किये जाने से उसका ज्ञान 'अज्ञान' ही है। इसी तरह, विरति (पापादि से विरति, निवृत्ति) के अभाव होने से, ज्ञान का जो (वास्तविक) फल होता है, उससे रहित होने के कारण, उस मिथ्यादृष्टि का बोध 'अज्ञान' ही (कहा जाता) है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 115 // (स्वभेदों की भिन्नता से मति व श्रुत में भेद) इस प्रकार मति व श्रुत में हेतु-फल की दृष्टि से जो भेद या अन्तर है, उसे सप्रसंग प्रतिपादित कर दिया गया। अब भेद के भी उपभेदों के आधार पर उन दोनों के भेद का निरूपण (आगे की गाथा में भाष्यकार द्वारा) किया जा रहा है May 184 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- -----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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