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________________ अविसेसिया मइ च्चिय सम्मदिट्ठिस्स सा मइण्णाणं। मइअन्नाणं मिच्छद्दिट्ठिस्स सुयं पि एमेव॥११४॥ [संस्कृतच्छाया:- अविशेषिता मतिरेव सम्यग्दृष्टेः सा मतिज्ञानम्। मत्यज्ञानं मिथ्यादृष्टे : श्रुतमपि एवमेव // ] सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टिभावेनाऽविशेषिता मतिर्मतिरेवोच्यते, न तु मतिज्ञानं मत्यज्ञानं चेति निर्धार्य व्यपदिश्यते, सामान्यरूपायां तस्यां ज्ञानाऽज्ञानविशेषयोर्द्वयोरप्यन्तर्भावात् / यदा तु सम्यग्दृष्टेरेव संबन्धिनी सा मतिर्विवक्ष्यते, तदा मतिज्ञानमिति निर्दिश्यते / यदा तु मिथ्यादृष्टिसंबन्धिनी तदा मत्यज्ञानम्। एवं श्रुतमप्यविशेषितं श्रुतमेव, विशेषितं तु सम्यग्दृष्टेः श्रुतज्ञानं, मिथ्यादृष्टेस्तु श्रुताज्ञानम्, सम्यग्दृष्टिसंबन्धिनो बोधस्य सर्वस्यापि ज्ञानत्वात्, मिथ्यादृष्टिसत्कस्य त्वज्ञानत्वात् // इति गाथार्थः॥११४॥ ननु यथा मति-श्रुताभ्यां सम्यग्दृष्टिर्घटादिकं जानीते, व्यवहरति च, तथा मिथ्यादृष्टिरपि, तत् किमिति तस्य सत्कं सर्वमप्यज्ञानमुच्यते?, इत्याशङ्कयाह (114) अविसेसिया मइ च्चिय सम्मद्दिहिस्स सा मइण्णाणं। मइअन्नाणं मिच्छद्दिट्ठिस्स सुयं पि एमेव // [(गाथा-अर्थः) भेद-रहित मति (मात्र) मति ही है, किन्तु वही मतिज्ञान सम्यकदृष्टि के होने पर ‘मतिज्ञान' होता है और मिथ्यादृष्टि के हो तो मति-अज्ञान कहा जाता है। इसी प्रकार 'श्रुत' भी है।] __व्याख्याः- सम्यग्दृष्टि (वाली) या मिथ्यादृष्टि (वाली)- इन भेदों से रहित जो मति है, वह मात्र मति ही कही जाती है। मतिज्ञान या मति-अज्ञान- इस रूप में निर्धारित कर उसका कथन 'मति' (मात्र ‘मति') शब्द नहीं करता, क्योंकि सामान्य (भेदरहित) रूप में तो ज्ञान व अज्ञान- ये दोनों ही रूप उसी में अन्तर्भूत हैं। किन्तु जब सम्यग्दृष्टि वाली मति -इस प्रकार कहा जाना हो तो उसे मतिज्ञान शब्द (संज्ञा) द्वारा कहेंगे। और जब मिथ्यादृष्टि वाली मति- इस प्रकार कहा जाना हो तो उसे मति-अज्ञान शब्द (संज्ञा) से कहेंगे। इसी प्रकार अविशेषित (भेदरहित) श्रुत मात्र श्रुत है, वही विशेषित (भेदापन्न) होकर सम्यग्दृष्टि के हो तो श्रुत-ज्ञान, और मिथ्यादृष्टि के हो तो श्रुत-अज्ञान कहा जाता है क्योंकि सम्यग्दृष्टि के सभी ज्ञान (सम्यक्)ज्ञान रूप ही होते हैं और मिथ्यादृष्टि के सभी ज्ञान अज्ञान (मिथ्याज्ञान) रूप ही होते हैं। यह गाथा का अर्थ सम्पूर्ण हुआ // 114 // जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि मति व श्रुत से घटादि को जानता है, और (तदनुरूप) व्यवहार करता है, मिथ्यादृष्टि भी तो उसी प्रकार से (जानता व व्यवहार) करता है, तो वह क्या कारण है कि मिथ्यादृष्टि के सभी ज्ञानों को अज्ञान रूप में कहा जाता है?- इस शंका को दृष्टि में रखकर (समाधान रूप में) भाष्यकार कह रहे हैं Ma 182 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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