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________________ अत्र प्रतिविधानमाह इह लद्धिमइ-सुयाइं समकालाइं, न तूवओगो सिं। मइपुव्वं सुयमिह पुण सुओवओगो मइप्पभवो॥१०८॥ [संस्कृतच्छाया:- इह लब्धिमतिश्रुते समकाले न तूपयोगोऽनयोः। मतिपूर्वं श्रुतमिह पुनः श्रुतोपयोगो मतिप्रभवः॥] ननु ध्यान्ध्यविजृम्भितमिदं परस्य, अभिप्रायापरिज्ञानात्, तथाहि- द्विविधे मति-श्रुते तदावरणक्षयोपशमरूपलब्धितः, उपयोगतश्च। तत्रेह लब्धितो ये मति-श्रुते ते एव समकालं भवतः, यस्त्वनयोरुपयोगः स युगपद् न भवत्येव, किन्तु केवलज्ञानदर्शनयोरिव तथास्वाभाव्यात् क्रमेणैव प्रवर्तते। अत्र तर्हि लब्धिमङ्गीकृत्य मतिपूर्वता श्रुतस्योक्ता भविष्यतीति चेत् / नैवम्, इत्याहमतिपूर्व श्रुतम्, इह तु श्रुतोपयोग एव मतिप्रभवोऽङ्गीक्रियते, न लब्धिरिति भावः। श्रुतोपयोगो हि विशिष्टमन्त ल्पाकारं श्रुतानुसारि ज्ञानमभिधीयते, तच्चाऽवग्रहेहादीनन्तरेणाऽऽकस्मिकं न भवति, अवग्रहादयश्च मतिरेव, इति तत्पूर्वता श्रुतस्य न विरुध्यते // इति गाथार्थः // 108 // अब भाष्यकार (पूर्वोक्त शंका का) प्रत्युत्तर दे रहे हैं (108) ... इह लद्धिमइ-सुयाइं समकालाई, न तूवओगो सिं। मइपुव्वं सुयमिह पुण सुओवओगो मइप्पभवो // - [(गाथा-अर्थः) यहां मति-श्रुत को जो समकाल कहा गया है, वह लब्धि की अपेक्षा से समझना चाहिए, इनका उपयोग समकाल नहीं है। ‘मतिपूर्वक श्रुत' का अर्थ है- श्रुत का उपयोग मतिपूर्वक है।] .. व्याख्याः- शंकाकार का उक्त कथन निश्चित ही उसकी बौद्धिक दिवालियेपन से उपजा है, क्योंकि उसने हमारे अभिप्राय को (ठीक तरह) समझा ही नहीं है। जरा समझें- तदावरणीयक्षयोपशम रूप लब्धि की दृष्टि से और उपयोग की दृष्टि से मति व श्रुत दो-दों प्रकार के हैं। उनमें जो मति-श्रुत समकाल में होते हैं, वे लब्धि की दृष्टि से हैं, किन्तु इनका जो (पृथक्-पृथक्) उपयोग है, वह समकालीन कभी नहीं होता, किन्तु केवल-ज्ञान व केवल-दर्शन की तरह स्वभावतः क्रमशः ही प्रवर्तित होता है। 'यहां लब्धि-को दृष्टि में रखकर श्रुत की मतिपूर्वता कही होगी' –यह बात नहीं है। "मतिपूर्वक श्रुत' के कथन द्वारा ‘मतिपूर्वक श्रुतोपयोग' का ही कथन हमें मान्य है, लब्धि की दृष्टि से नहीं- यह भाव है। श्रुतोपयोग - जो विशिष्ट अन्तर्जल्प रूप में होता है- (वह) श्रुतानुसारी ज्ञान कहा जाता है, वह अवग्रह, ईहा आदि के बिना आकस्मिक उत्पन्न नहीं हो जाता, और ये अवग्रह आदि मतिज्ञान ही हैं, इसलिए श्रुत की मतिपूर्वता में कोई विरोध नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 108 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 173
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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