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________________ अनुप्रेक्षादिकालेऽभ्यूह्य श्रुतपर्यायवर्धनेन मत्यैव श्रुतज्ञानं पूर्यते पोष्यते पुष्टिं नीयत इत्यर्थः, तथा मत्यैवाऽन्यतस्तत् प्राप्यते गृह्यते, तथा मत्यैव तदन्यस्मै दीयते व्याख्यायते, नाऽमत्या न मतिमन्तरेणेत्यर्थः, प्राकृतत्वात् पुलिङ्गनिर्देशः। तथा गृहीतं सदेतत् परावर्तन-चिन्तनद्वारेण मत्यैव पाल्यते स्थिरीक्रियते, इतरथा मत्यभावे तद् गृहीतमपि प्रणश्येदेवेत्यर्थः। श्रुतज्ञानस्यैते पूरणादयोऽर्था विशिष्टाभ्यूहधारणादीनन्तरेण कर्तुं न शक्यन्ते, अभ्यूहादयश्च मतिज्ञानमेव, इति सर्वथा श्रुतस्य मतिरेव कारणम्, श्रुतं तु कार्यम्, कार्य-कारणभावश्च भेदे सत्येवोपपद्यते, अभेदे पट-तत्स्वरूपयोरिव तदनुपपत्तेः। तस्मात् कारणकार्यरूपत्वाद् मति-श्रुतयोर्भेदः॥ इति गाथार्थः // 106 // अथ श्रुतस्य मतिपूर्वतां विघटयन्नाह नाणाणण्णाणि य समकालाई जओ मइ-सुयाई। तो न सुयं मइपुव्वं मइणाणे वा सुयनाणं॥१०७॥ व्याख्याः- अनुप्रेक्षा (पुनरावर्तन) आदि के समय, विचारणा के द्वारा श्रुतपर्याय की वृद्धि होने से, मति द्वारा ही श्रुतज्ञान का पूरण, पोषण होता है। मति से ही श्रुत पुष्ट होता है- यह तात्पर्य है। इसी प्रकार, मति द्वारा ही वह प्राप्त होता है- गृहीत होता है, तथा मति द्वारा ही वह अन्य को दिया जाता है- व्याख्यायित होता है, अन्यथा -यानी मति के बिना, वैसा (श्रुतज्ञान) नहीं हो पाता है- यह भाव है। प्राकृत में प्रयुक्त होने के कारण, मतिशब्द यहां पुंलिङ्ग में प्रयुक्त हुआ है। गृहीत होता श्रुतज्ञान परावर्तन व चिन्तन के माध्यम से मतिज्ञान द्वारा ही पालित होता है अर्थात् श्रुतज्ञान का स्थिरीकरण होता है, अन्यथा -अर्थात् मतिज्ञान के अभाव में, वह गृहीत होकर भी विनाश को ही प्राप्त होगा- यह तात्पर्य है। - श्रुतज्ञान के पूरण आदि अर्थ (का क्रियान्वयन), विशिष्ट विचार व धारणा आदि के बिना नहीं किया जा सकता, और वे विशिष्ट विचार आदि तो मतिज्ञान रूप ही हैं, इसलिए मतिज्ञान ही सर्वतोभावेन श्रुतज्ञान का कारण है, (मतिज्ञान का ही) श्रुत कार्य है, यह कार्य-कारणभाव (दोनों में) तभी संगत हो सकता है जब दोनों में भेद ही माना जाय, अभेद मानने पर तो वह कार्य-कारण भाव उसी तरह असंगत होता है जिस प्रकार घट व घट-स्वरूप के मध्य (कार्यकारण भाव नहीं बनता, क्योंकि दोनों में तादात्म्य, अभेद ही है)। इसलिए, कारण-कार्यभाव की दृष्टि से मति व श्रुत में भेद (ही सिद्ध होता) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 106 // अब शंकाकार की ओर से श्रुतज्ञान की मतिपूर्वकता का निराकरण प्रस्तुत किया जा रहा है (107) नाणाणण्णाणि य समकालाइं जओ मइ-सुयाइं। तो न सुयं मइपुव्वं मइणाणे वा सुयन्नाणं // ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------171
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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