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________________ इदमुक्तं भवति- एकेन्द्रियाणां तावच्छ्रोत्रादिद्रव्येन्द्रियाभावेऽपि भावेन्द्रियज्ञानं किञ्चिद् दृश्यत एव, वनस्पत्यादिषु स्पष्टतल्लिङ्गोपलम्भात्, तथाहि- कलकण्ठोद्गीर्णमधुरपञ्चमोद्गार श्रवणात् सद्यः कुसुम-पल्लवादिप्रसवो विरहकवृक्षादिषु श्रवणेन्द्रियज्ञानस्य व्यक्तं लिङ्गमवलोक्यते। तिलकादितरुषु पुनः कमनीयकामिनीकमलदलदीर्घशरदिन्दुधवललोचनकटाक्षविक्षेपात् कुसुमाद्याविर्भावश्चक्षुरिन्द्रियज्ञानस्य, चम्पका_हिपेषु तु विविधसुगन्धिगन्धवस्तुनिकुरम्बोन्मिश्रविमलशीतलसलिलसेकात् तत्प्रकटनं घ्राणेन्द्रियज्ञानस्य, बकुलादिभूरुहेषु तु रम्भातिशायिप्रवररूपवरतरुणभामिनीमुखप्रदत्तस्वच्छसुस्वादुसुरभिवारुणीगण्डूषास्वादनात् तदाविष्करणं रसनेन्द्रियज्ञानस्य, कुरबकादिविटषिष्वशोकादिद्रुमेषु च घनपीनोन्नतकठिनकुचकुम्भविभ्रमापभ्राजितकुम्भीनकुम्भरणन्मणिवलयक्वणत्कङ्कणाभरणभूषित-भव्यभामिनीभुजलताऽवगृहनसुखाद् निष्पिष्टपद्मरागचूर्णशोणतलतत्पादकमलपाणिप्रहाराच्च झगिति प्रसून-पल्लवादिप्रभवः स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्य स्पष्टं लिङ्गमभिवीक्ष्यते। ततश्च यथैतेषु द्रव्येन्द्रियासत्त्वेऽप्येतद् भावेन्द्रियजन्यं ज्ञानं सकलजनप्रसिद्धमस्ति, तथा द्रव्यश्रुताभावे भावश्रुतमपि भविष्यति। दृश्यते हि जलाद्याहारोपजीवनाद् वनस्पत्यादीनामाहारसंज्ञा, संकोचनवल्ल्यादीनां तु हस्तस्पर्शादिभीत्याऽवयवसंकोचनादिभ्यो भयसंज्ञा. तात्पर्य यह है कि एकेन्द्रियों के श्रोत्र आदि द्रव्येन्द्रियां नहीं होतीं, फिर भी उनमें कुछ न कुछ भावेन्द्रिय-ज्ञान दृष्टिगोचर होता ही है, वनस्पति आदि (एकेन्द्रियों) में तो स्पष्ट ही उसका चिन्ह प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ- कोयल की मधुर पंचम तान सुनकर तुरन्त कुसुम व पल्लव आदि का प्रादुर्भूत हो जाना, विरहक आदि विशेष वृक्षों में जो होता देखा जाता है वह उनमें श्रवणेन्द्रिय ज्ञान के होने का स्पष्ट चिन्ह है। इसी तरह, सुन्दर कामिनी के कमल-पत्र के समान विशाल एवं शरत्कालीन चन्द्र के समान नेत्र-कटाक्ष के कारण तिलक आदि वृक्ष-विशेषों में फूल आदि का प्रादुर्भाव होना उनमें चक्षुरिन्द्रिय-ज्ञान होने का ही (पोषक) चिन्ह है। चम्पक आदि वृक्षों में विविध सुगन्धित वस्तु-समूह से मिश्रित निर्मल-शीतल जल का सिञ्चन करने पर (पुष्प) खिल जाते हैं और ऐसा होना उनमें घ्राणेन्द्रिय ज्ञान के होने का चिन्ह ही है। इसी तरह, रम्भा से भी बढ़-चढ़कर उत्कृष्ट सुन्दर रूप वाली तरुण नारियां जब स्वच्छ-सुस्वादिष्ट व सुगन्धित मदिरा को अपने मुख से बकुल (मौलसिरी) वृक्ष पर कुल्ला करती हुईं (जलधार) छोड़ती हैं, तब उसके आस्वादन से उनसे मंजरी फूट पड़ती है और ऐसा होना उनमें रसनेन्द्रिय-ज्ञान होने का एक चिन्ह ही है। इसी तरह, कुरबक (सदाबहार) आदि के वृक्षों को जब ऐसी सुन्दर स्त्रियां, जो अपने घन-सुपुष्ट-उन्नत कुच रूपी कुम्भ की शोभा से हस्ति-कुम्भ को भी निस्तेज कर सकती हों और मणि-वलयों के कारण झनझनाते कंकण आभरण से भूषित हों, अपनी भुजलता में आवेष्टित (आलिङ्गित) करती हैं, या अशोक आदि वृक्षों पर जब वे स्त्रियां पीसे हुए पद्मराग के चूर्ण से रक्त किये गए तल वाले चरण-कमल का जोरदार प्रहार करती हैं, तब उनमें उक्त क्रिया से मानों सुख उपजता है और उनमें तुरन्त पुष्प व पल्लव आदि का प्रादुर्भाव हो जाता है, और ऐसा होना उनमें भी स्पर्शनेन्द्रिय ज्ञान होने का एक स्पष्टतया चिन्ह है। इसलिए, जिस प्रकार इन (वृक्षादि) में द्रव्येन्द्रिय के न होने पर भी भावेन्द्रिय-जनित उक्त ज्ञान होने की बात सभी लोगों में प्रसिद्ध है, उसी तरह द्रव्यश्रुत के अभाव में भी भावश्रुत का सद्भाव Ma 166 -------- विशेषावश्यक भाष्य --
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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