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________________ [संस्कृतच्छायाः- काल-विपर्यय-स्वामित्व-लाभसाधर्म्यतोऽवधिस्ततः। मानसमितः छद्मस्थ-विषयभावादिसामान्यात् / ] ततो मति-श्रुताभ्यामनन्तरमवधिनिर्दिष्टः। कुतः?, इत्याह- काल-विपर्यय-स्वामित्व-लाभसाधर्म्यात्। तत्र नानाजीवापेक्षया, एकजीवापेक्षया च मति-श्रुताभ्यां सहाऽवधेः समानस्थितिकालत्वात् कालसाधर्म्यम् / यथा च मिथ्यात्वोदये मतिश्रुतज्ञाने अज्ञानरूपं विपर्ययं प्रतिपद्येते, तथाऽवधिरपि, इति विपर्ययसाधर्म्यम्। य एव च मति-श्रुतयोः स्वामी स एवाऽवधेरपि, इति स्वामिसाधर्म्यम् / लाभोऽपि कदाचित् कस्यचिदमीषां त्रयाणामपि ज्ञानानां युगपदेव भवति, इति लाभसाधर्म्यम्। ___ 'माणसमित्तो इत्यादि' इतोऽवधेरनन्तरं मनोविषयत्वाद मनसि भवं मानसं मन:पर्यायज्ञानं युक्तम्। कुतः?, इत्याहछग्रस्थ-विषय-भावादिसामान्यात्, आदिशब्दात् प्रत्यक्षत्वादिसामान्यं गृह्यते, समानस्य भावः सामान्यं साम्यं तस्मादित्यर्थः। तत्र यथाऽवधिज्ञानं छद्मस्थस्यैव भवति तथा मनःपर्यायज्ञानमपीतिच्छद्मस्थसाम्यम्। उभयोरपि पुद्गलमात्रविषयत्वाद् विषयसाम्यम्। द्वयोरपि क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वाद् भावसाम्यम्। द्वितयस्याऽपि साक्षाद्दर्शित्वात् प्रत्यक्षत्वसाम्यम्। एवमन्यापि प्रत्यासत्तिरभ्यूह्या // इति गाथार्थः // 7 // __ [(गाथा-अर्थः) काल, विपर्यय, स्वामित्व और लाभ- इनकी (अपेक्षा से) समानधर्मता होने के कारण (मति व श्रुत के) बाद में 'अवधि' का कथन है, और उसके बाद मनःपर्यय ज्ञान का, क्योंकि छद्मस्थता, विषय और भाव की अपेक्षा से इनमें (अवधि ज्ञान के साथ मनःपर्यय ज्ञान की) समानता (साम्य) है।] .. व्याख्याः- इस कारण से मति व श्रुत के बाद 'अवधि' का कथन किया गया है। किस कारण से? बता रहे हैं- (काल-विपर्यय-स्वामित्व-लाभसाधात्)- नाना जीव की अपेक्षा से या एक जीव की अपेक्षा से मतिश्रुत और अवधि (ज्ञान)- इनका स्थिति-काल समान है, इसलिए (इन तीनों में) काल-साधर्म्य है। इसी तरह, मिथ्यात्व के उदय में जिस प्रकार मति, श्रुत ज्ञान (कुमति, कुश्रुत रूप) 'अज्ञान' रूप विपरीतता, प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार अवधि ज्ञान भी (विभंग ज्ञान रूप) विपरीतता प्राप्त कर लेता है, असलिए (इन तीनों में) विपर्यय-साधर्म्य भी है। मति व श्रुत का जो स्वामी होता है, वह अवधि का भी हो सकता है- इस प्रकार (इन तीनों में) स्वामि-साधर्म्य भी है। इनका एक साथ ही लाभ भी किसी-किसी को कभी होता है- इसलिए लाभ-साधर्म्य भी है। ... (मानसम् इतः इत्यादि)- मन को विषय करने वाले, मन में होने वाले 'मानस' मनःपर्यय ज्ञान का कथन अवधि के बाद करना युक्तिसंगत है। कैसे? उत्तर दे रहे हैं- (छद्मस्थविषयभावादिसामान्यात्)- अर्थात् छद्मस्थता, विषय, भाव आदि की दृष्टि से (अवधि व मनःपर्ययज्ञान में) परस्पर-समानता है। 'आदि' पद से प्रत्यक्षत्व आदि की समानता लेनी चाहिए। 'सामान्य' यानी समानता, साम्य, उसके कारण (अवधि के बाद मनःपर्यय का निर्देश हुआ है)- यह तात्पर्य है। जैसे अवधिज्ञान छद्मस्थ को ही होता है, वैसे ही मनःपर्ययज्ञान भी छद्मस्थ को होता है- इसलिए दोनों में --------- विशेषावश्यक भाष्य - -- -----137 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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