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________________ तदेवं ज्ञानपञ्चकस्याप्यभिधानार्थे कथिते आह कश्चित्- नन्वादौ मतिश्रुतोपन्यासः किमर्थ:? इति / अत्राऽऽचार्यः प्राह जं सामि-काल-कारण-विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाइं। तब्भावे सेसाणि य तेणाईए मइ-सुयाइं // 5 // [ संस्कृतच्छाया:- यत् स्वामि-काल-कारण-विषय-परोक्षत्वैस्तुल्यानि। तद्भावे शेषानि च तेनाऽऽदौ मति-श्रुते॥] तेन कारणेनादौ मति-श्रुते निर्दिष्टे / येन, किम्?, इत्याह- 'जं सामीत्यादि' इति संटङ्कः। मतिशब्दोऽत्राऽऽभिनिबोधिकसमानार्थो द्रष्टव्यः, आभिनिबोधिकं ह्यौत्पत्तिक्यादिमतिप्रधानत्वाद् मतिरित्यप्युच्यते। यद् यस्मात् कारणात् स्वामि-काल-कारण-विषयपरोक्षत्वैस्तुल्ये समानस्वरूपे मति-श्रुते, तेनाऽऽदौ निर्दिष्टे इत्यर्थः। तत्र स्वामी तावदनयोरेक एव "जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं" इत्याद्यागमवचनादिति / कालोऽपि द्विधा- नानाजीवापेक्षया, एकजीवापेक्षया च। स चाऽयं द्विविधोऽप्यनयोस्तुल्य एव, नानाजीवापेक्षया द्वयोरपि सर्वकालमनुच्छेदाद, एकजीवापेक्षया तुभयोरपि (मति आदि ज्ञानों की क्रमिकता का कारण) इस प्रकार, पांचों ज्ञानों के नामों का अर्थ बताये जाने पर कोई शंकाकार कह रहा है- (पांच ज्ञानों में) सबसे पहले मति व श्रुत का उपन्यास (कथन, उपस्थापन) क्यों किया गया है? तब (इस शंका के समाधान हेतु भाष्यकार) आचार्य कह रहे हैं (85) जं सामि-काल-कारण-विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाइं। तब्भावे सेसाणि य तेणाईए मइ-सुयाइं // [(गाथा-अर्थः) ये दोनों ज्ञान स्वामी, काल, कारण, विषय और परोक्षपने की दृष्टि से (परस्पर) समान हैं, इसलिए सबके आदि में उनका कथन (निरूपण) किया गया है।] व्याख्याः - उस कारण से मति व श्रुत-ज्ञान इन दोनों का सर्वप्रथम निर्देश किया गया है। वह कारण क्या है? इसका उत्तर है- (यत् स्वामिकाल-इत्यादि)- (अर्थात् इनके सबसे पहले कथन में) स्वामी, काल इत्यादि कथित, (युक्तिरूप) आधार हैं। यहां मति शब्द को आभिनिबोधिक का पर्याय समझना चाहिए। आभिनिबोधिक ज्ञान को ही औत्पत्तिकी मति आदि की प्रधानता के कारण ‘मति' (ज्ञान) भी कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि चूंकि स्वामी, काल, कारण, विषय, परोक्षता- इन दृष्टियों से मति व श्रुत दोनों समान स्वरूप वाले हैं, इसलिए उनका पहले निर्देश किया जाता है। उनमें, इन दोनों का स्वामी एक ही है, क्योंकि, 'जहां-जहां मतिज्ञान है, वहां-वहां श्रुतज्ञान है' यह आगम-वचन है। काल (का विचार) दो प्रकार का होता है- (1) नाना जीवों की अपेक्षा से और, (2) एक जीव की अपेक्षा से। ये दोनों प्रकार के काल भी इन (दोनों) के समान ही हैं, क्योंकि नाना जीवों की अपेक्षा से ये दोनों ही ज्ञान सर्वदा अविच्छिन्न रूप से रहते हैं, और एक जीव की अपेक्षा Na 134 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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