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________________ आभिनिबोधिकज्ञानम्, श्रुतज्ञानम्, अवधिज्ञानम्, मनःपर्ययज्ञानम्, केवलज्ञानमिति पञ्च ज्ञानानि / एतानि च भाष्यकारो विस्तरतः स्वयमेव व्याख्यास्यति // 79 // तत्राऽऽभिनिबोधिकज्ञानशब्दार्थं दर्शयन्नाह अत्थाभिमुहो नियओ बोहो जो सो मओ अभिनिबोहो। सो चेवाऽऽभिणिबोहिअमहव जहाजोगमाउजं // 8 // [संस्कृतच्छाया:- अर्थाभिमुखो नियतो बोधो यः स मतोऽभिनिबोधः। स चैवाभिनिबोधिकमथवा यथायोगमायोज्यम्॥] बोधनं बोधः, 'ऋगतौ' अर्यते गम्यते ज्ञायत इत्यर्थः, तस्याभिमुखस्तद्ग्रहणप्रवण:- अर्थबलाऽऽयातत्वेन तन्नान्तरीयकोद्भव इत्यर्थः, अयमभिशब्दस्याऽर्थो दर्शितः, एवंभूतश्च बोधः क्षयोपशमाद्यपाटवेऽनिश्चयात्मकोऽपि स्यात्, अतो नियतो निश्चित इति, निशब्देन विशिष्यते- रसाद्यपोहेन रूपमेवेदं' इत्यवधारणात्मक इत्यर्थः। उक्तं च "एवमवग्रहोऽपि निश्चितमवगृह्णाति, कार्यत उपलब्धेः" अन्यथाऽवग्रहकार्यभूतोऽपायोऽपि निश्चयात्मको न स्यादिति भावः। व्याख्याः - आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान और केवलज्ञान- ये पांच ज्ञान हैं। भाष्यकार स्वयं ही इन पांचों का व्याख्यान (आगे) करेंगे // 79 // इन (पांच ज्ञानों) में आभिनिबोधिक ज्ञान का शब्दार्थ बता रहे हैं Ikoll अत्याभिमुहो नियओ, बोहो जो सो मओ अभिनिबोहो। सो चेवाऽऽभिणिबोहियमहव जहाजोगमाउज्जं // . [(गाथा-अर्थः) अर्थाभिमुख होते हुए जो नियत (संशयादि रहित) बोध है, वह 'अभिनिबोध' है। वही आभिनिबोधिक ज्ञान है। अथवा यथायोग्य (अर्थात् अन्य उचित व्युत्पत्तियों के अनुरुप) इसे नियोजित कर लेना चाहिए।] .. व्याख्या:- बोध यानी बोधन (वस्तु-ज्ञान)। 'अर्थ' इस पद की सिद्धि गत्यर्थक (ज्ञानार्थक) 'ऋ' धातु से हुई है, जो प्राप्त किया जाय यानी जाना जाय, वह 'अर्थ' है। उस अर्थ के प्रति अभिमुख यानी उस पदार्थ के ग्रहण या ज्ञान के प्रति समर्थ ज्ञान, इसमें 'अभि' उपसर्ग के सामर्थ्य से अर्थ हुआ- अर्थ-बल से उत्पन्न होने के कारण बिना किसी व्यवधान के प्रादुर्भूत होने वाला ज्ञान / ऐसा जो बोध होता है, वह (कभी-कभी) क्षयोपशम आदि निपुणता (की कमी या अभाव) के कारण अनिश्चयात्मक भी हो सकता है, अतः (उसका निराकरण करने हेतु) कहा- नियत यानी निश्चित / 'निबोध' पद में भी 'नि' उपसर्ग इसी निश्चितता को सूचित करता है, अर्थात् रस आदि अपोह का (निराकरण) करते हुए 'यह रूप ही है'- ऐसा 'अवधारण' (निश्चय रूप) ज्ञान- यह ज्ञान यहां (अभीष्ट) है। इसीलिए कहा भी है- 'इस प्रकार अवग्रह भी निश्चित अर्थ को ग्रहण करता है, क्योंकि 'कार्य' में (उस निश्चितता की) उपलब्धि होती है, अन्यथा अवग्रह (को अनिश्चित माना जाए तो उस) के कार्य 'उपाय' को भी अनिश्चयात्मक मानना पड़ेगा -यह भाव है। a ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 125 4
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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