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________________ सहुज्जुसुया पज्जायवायगा भावसंगहं बेति। उवरिमया विवरीआ भावं भिदंति तो निययं // 77 // [संस्कृतच्छाया:- यद् सामान्यग्राही संगृण्हाति तेन संग्रहो नियतम्। येन विशेषग्राही व्यवहारस्तस्माद् विशेषयति॥ शब्द-ऋजुसूत्रौ पर्यायवाचकौ भावसंग्रहं ब्रूतः। उपरितनौ विपरीतौ भावं भिन्तः तस्माद् नियतम्॥] यद् यस्मात् कारणात् संग्रहनयः सामान्यग्राही सामान्यवादी, तेन कारणेन संग्रहात्येकत्वेनाऽध्यवस्यति प्रत्येकं त्रितयं नाम-स्थापना-द्रव्यनिक्षेपलक्षणं, यानि कानिचिद् नाममङ्गलानि तत् सर्वमप्येकं नाममङ्गलम्, तथा स्थापनामङ्गलान्यशेषाण्यप्येकं स्थापनामङ्गलम्, एवं द्रव्यमङ्गलान्यपरिशिष्टान्यप्येकं द्रव्यमङ्गलमित्यर्थः। व्यवहारनयस्तु येन कारणेन विशेषग्राही, ततो नामादिनिक्षेपान् विशेषयति भेदेनेच्छति- नाममङ्गलानि सर्वाण्यपि पृथग नाममङ्गलत्वेनेच्छति, एवं स्थापनादिनिक्षेपेष्वपि वाच्यम्। 'सहुज्जुसुया इत्यादि'। शब्द-ऋजुसूत्रनयौ पुनः पर्यायैरेकार्थभिन्नाभिधानैर्वस्तु वक्तुं शीलं ययोस्तौ पर्यायवाचिनौ सन्तौ नाम-स्थापना-द्रव्यनिक्षेप-परिहारेणैकस्यैव भावस्य भावनिक्षेपस्य संगृहीति: संग्रहोऽभिन्नत्वमेकत्वं भावसंग्रहस्तं ब्रूतः प्रतिपादयतः। 77 // सहुज्जुसुया पज्जायवायगा भावसंगहं बेति। उवरिमया विवरीआ, भावं भिदंति तो निययं // [(गाथा-अर्थः) संग्रह नय चूंकि सामान्यग्राही है, अतः वह (नाम, स्थापना व द्रव्य-इन तीनों को) निश्चित रूप से 'एक रूप' से ग्रहण करता है और व्यवहार नय विशेषग्राही है, अतः वह (उन्हें) : विशेष रूप से, भिन्न-भिन्न रूप में ग्रहण करता है // 76 // शब्द और ऋजुसूत्र पर्यायवादी हैं, इसलिए वे ‘भाव का संग्रह करते हुए (वस्तु-) कथन करते हैं तथा ऊपर के (समभिरूढ़ व एवंभूत-ये) दो नय (शब्दनय की अपेक्षा) विपरीत हैं और नियत रूप से भाव को (एक रूप में नहीं, अपितु भेद-दृष्टि रखकर) भिन्न रूप करते हैं // 77 // ] ___व्याख्याः- चूंकि संग्रहनय सामान्यग्राही अर्थात् सामान्यवादी है, इसलिए (वह) नाम, स्थापना व द्रव्य- इन तीनों निक्षेपों में प्रत्येक को संगृहीत करता है अर्थात् एकत्वरूप में ग्रहण करता है। जैसे- जो कोई भी नाममङ्गल हैं, उन सबको एक नाममङ्गल रूप में, इसी प्रकार अशेष (अनेक) स्थापना मङ्गलों को भी एक स्थापना मङ्गल रूप में, इसी प्रकार समस्त (अनेक) द्रव्य मङ्गलों को भी एक द्रव्यमङ्गल रूप में ग्रहण करता है- यह तात्पर्य है। किन्तु चूंकि व्यवहार नय विशेषग्राही है, इसलिए वह नाम आदि निक्षेपों को विशेषता यानी भेद-दृष्टि से (ग्रहण करना) चाहता है, अर्थात् वह समस्त नाम-मङ्गलों को पृथक्-पृथक् नाम-मङ्गल के रूप में ग्रहण करना चाहता है, इसी प्रकार स्थापना आदि निक्षेपों में भी समझ लेना चाहिए। शब्द और ऋजुसूत्र- ये दो नय तो पर्यायवाचक हैं, अर्थात् भले ही एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न पर्यायों से वाच्य-कथनीय हो, फिर भी वे दोनों नाम, स्थापना व द्रव्य निक्षेप- इन तीनों का परिहार Yo 120 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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