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________________ तदेवमेकोऽपि नामेन्द्रस्याऽऽश्रयभूतोऽर्थस्तावद् द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभेदाधिष्ठितोऽनन्तभेदत्वं प्रतिपद्यते। तथा स्थापनाद्रव्य-भावाश्रयस्याऽप्युक्तानुसारतः प्रत्येकमनन्तभेदत्वमनुसरणीयम्। इत्येवमेते नामादयो भेदकारिणः। अभेदकारिणस्तर्हि कथम? इति चेत्। उच्यते- यदैकस्मिन्नपि वस्तुनि नामादयश्चत्वारोऽपि प्रतीयन्ते तदाऽभेदविधायिनः, तथाहि- एकस्मिन्नपि शचीपत्यादौ 'इन्द्र' इति नाम, तदाकारस्तु स्थापना, उत्तरावस्थाकारणत्वं तु द्रव्यत्वम्, दिव्यरूप-संपत्ति-कुलिशधारण-परमैश्वर्यादिसंपन्नत्वं तु भाव इति चतुष्टयमपि प्रतीयते। तस्मादेवं सर्वस्य स्वाऽऽश्रयभूतस्य वस्तुनो भेद-संघातकारिणो भिन्नलक्षणा एते नामादयो धर्मा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यत्रिकवत् प्रतिवस्तु आयोजनीयाः परस्पराऽविनाभाविनः प्रतिवस्तु द्रष्टव्या इति तात्पर्यम्॥ इति गाथार्थः // 4 // "नत्थि नएहिं विहणं सुत्तं अत्थो अजिणमए किंचि। आसज उ सोआरं नएण य विसारओ बूया॥" [नास्ति नयैर्विहीनं सूत्रमर्थश्च जिनमते किंचित्। आसाद्य तु श्रोतारं नयेन च विशारदो ब्रूयात् // ] -इति वचनाजिनमते सर्वं वस्तु प्रायो नयैर्विचार्यते, अतो नाम-स्थापनादीनपि प्रस्तुतान् नयैर्विचारयन्नाह इस प्रकार, नाम-इन्द्र की आश्रयभूत एक भी वस्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव के भेदों से अधिष्ठित होकर अनन्तभेद वाली होती है- यह जानें। इस प्रकार नाम आदि (चारों) भेदकारी हैं। (प्रश्न) तो फिर इन्हें अभेदकारी भी कहा है, वह कैसे? (उत्तर-) जब एक ही वस्तु में नाम आदि चारों की ही प्रतीति होती है, तब ये अभेदकारी होते हैं। उदाहरणार्थ- एक ही शचीपति (इन्द्र) में 'इन्द्र' यह "नाम' है, उसका आकार 'स्थापना' है, उत्तरवर्ती अवस्था (इन्द्रत्व) का कारण होना यह 'द्रव्य' है और दिव्य रूप, दिव्य संपत्ति, वज्रधारण व परम ऐश्वर्यसम्पन्नता यह 'भाव' है, इस प्रकार चारों की ही प्रतीति होती है। ___ इसलिए भिन्न-भिन्न लक्षण वाले ये नाम आदि धर्म अपने आश्रयभूत समस्त वस्तु में भेद व अभेद (दोनों) के कारक होते हैं। प्रत्येक वस्तु में उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य -इस त्रयरूपता की तरह इनकी आयोजना करनी चाहिए, अर्थात् परस्पर-अविनाभूत रूप में प्रत्येक वस्तु में इनका सद्भाव देखना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 74 // जैसा कि कहा गया है- “जैन मत में (कोई भी) सूत्र या उसका अर्थ नयों से रहित नहीं है। इसलिए श्रोता को अपने सामने प्राप्त कर निपुण (वक्ता) 'नय' का आश्रय लेकर ही प्रवचन करे।" इस कथन से स्पष्ट है कि जिन-मत में समस्त वस्तु प्रायः नयों के माध्यम से ही विचारित/आलोचितप्रत्यालोचित होती है, अतः प्रस्तुत नाम, स्थापना आदि (नयों) की भी नयों के माध्यम से विचारणा (करने की दृष्टि से कथन) कर रहे हैं ----- विशेषावश्यक भाष्य - ----117 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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