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________________ तस्माज्जन्म-विनाशयोन किञ्चित् केनचिदपेक्ष्यते, अपेक्षणीयाभावाच्च न किञ्चित् कस्यचित् कारणम्। तथा च सति न किञ्चिद् द्रव्यम्, किन्तु पूर्वापरीभूताऽपरापरक्षणरूपाः पर्याया एव सन्त इति। अत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताभयात्, सुगतशास्त्रेषु विस्तरेणोक्तत्वाच्च // इति गाथार्थः॥७० // यदपि द्रव्यवादिना 'पिण्डो कारणमिटुं पयं व परिणामओ' इत्याद्युक्तम्, तत्राऽस्माभिरप्येतद् वक्तुं शक्यत एवेति। किम्?, इत्याह पिण्डो कजं पइसमयभावाउ जह दहिं तहा सव्वं। कजाभावाउ नत्थि कारणं खरविसाणं व॥७१॥ [संस्कृतच्छायाः- पिण्डः कार्य प्रतिसमयभावाद् यथा दधि तथा सर्वम्। कार्याभावाद् नास्ति कारणं खरविषाणमिव॥] मृदादिपिण्डः कार्यमेव, न तु कारणम्। कुतः?, इत्याह- प्रतिसमयमपरापरक्षणरूपेण भावात्, दध्यादिवदिति / प्रतिसमयमपरापरक्षणभवनमसिद्धमिति चेत्। न, वस्तूनां पुराणादिभावाऽन्यथानुपपत्तेः। उक्तं च इस प्रकार, जन्म और विनाश- दोनों में कोई किसी की अपेक्षा नहीं रखता, और अपेक्षा न रखने से कोई किसी (की उत्पत्ति व विनाश) में कारण नहीं है। ऐसी स्थिति में कोई 'द्रव्य' (ऐसा पृथक् तत्त्व) नहीं है, अपितु पूर्व- पर (एक के बाद दूसरा, फिर तीसरा इत्यादि) रूप में स्थित क्षणपरम्परा रूप पर्याय ही हैं। यहां यद्यपि बहुत कुछ कहना है, किन्तु ग्रन्थ की गहनता (विस्तार) के भय से नहीं कह रहे हैं, बौद्ध शास्त्रों में विस्तार से (इस सम्बन्ध में) कहा जा चुका है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ |70 // . द्रव्यवादी द्वारा (गाथा-६८ में) “मृदादि पिण्ड कारणमात्र ही स्वीकारा गया है, क्योंकि वह परिणामी है, दूध की तरह" -इत्यादि कथन किया गया है, उस सम्बन्ध में हम (भाववादी) भी (प्रत्युत्तर रूप में) इस प्रकार कह सकते हैं // 71 // पिण्डो कज्जं पइसमयभावाउ जह दहिं तहा सव्वं / कज्जाभावाउ नत्थि कारणं खरविसाणं व // [(गाथा-अर्थः) (मिट्टी आदि का) पिण्ड 'कार्य' ही है क्योंकि वह प्रतिक्षण नये-नये पर्याय रूप में हो रहा है, इसी प्रकार समस्त वस्तुएं (कार्य) हैं। 'कारण' (जिसे द्रव्यवादी ‘कारण' इस रूप में मान रहा है, वह), चूंकि कार्य रूप नहीं है, इसलिए उसी प्रकार असद्रूप है जिस प्रकार गधे के सींग।] . व्याख्याः - मिट्टी आदि का पिण्ड 'कार्य' ही है, 'कारण' नहीं है। कैसे? उत्तर यह है कि वहां प्रतिक्षण (एक के बाद दूसरा) पूर्वक्षण व अपरक्षण- इस क्रम से 'भाव' का ही सद्भाव है, दही आदि की तरह। प्रतिक्षणं पर-अपर क्षण का होना सिद्ध नहीं होता- ऐसा तुम्हारा कहना भी असंगत है, क्योंकि वैसा माने बिना वस्तु में पुरानापना (अधिक पुरानापना आदि का व्यवहार) संगत नहीं होगा। कहा भी हैVA---------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ----- 111
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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