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________________ तदेवं भेदव्याख्यापक्षे समर्थिते भूयोऽप्यपरेण प्रकारेणाऽऽह परः . इह भावो च्चिय वत्थु तयत्थसुन्नेहिं किं व सेसेहिं?। नामादओ वि भावा जं ते विहु वत्थुपज्जाया॥५५॥ [संस्कृतच्छाया:- इह भाव एव वस्तु तदर्थशून्यैः किं वा शेषैः। नामादयोऽपि भावा यत् तेऽपि खलु वस्तुपर्यायाः॥] इह नामादिविचारे प्रक्रान्ते भाव एव वस्तु, विवक्षितार्थक्रियासाधकत्वात्, उभयसंमतवस्तुवत्, न हि भावेन्द्रवद् - विवक्षितार्थसाधनसमर्था गोपालदारकाद्या नामेन्द्रादयः, अत: किमत्र शेषैर्भावार्थशून्यैर्नामादिभि:? न किञ्चिदित्यर्थः। अत्रोत्तरमाह- 'नामादओ इत्यादि'। इदमुक्तं भवति- यदि सामान्येनैव भावो वस्तुत्वेनाऽभ्युपगभ्यते, तदा सिद्धसाध्यता, यतो नामादयोऽपि, आदिशब्दात् स्थापना-द्रव्यपरिग्रहः, भावाः भावविशेषा इत्यर्थः। कुतः?, इत्याह- यद् यस्मात् तेऽपि नामादयो इस प्रकार, भेदपरक व्याख्या पक्ष का समर्थन किये जाने पर भी कोई अन्य (जिज्ञासु या शंकाकार) पुनः अन्य प्रकार से (जिज्ञासा या शंका का) कथन कर रहा है (55) . इह भावोच्चिय वत्थु, तयत्थसुन्नेहिं किं व सेसेहिं?| ... नामादओ वि भावा, जं ते वि हु वत्थुपज्जाया // [(गाथा-अर्थः) (प्रश्न-) जब 'भाव' ही (तात्त्विक रूप से) वस्तु है, तब 'भाव' रूप अर्थ से शून्य (तत्त्वरहित) अन्य अवशिष्ट (नाम, स्थापना, द्रव्य-इन तीनों) के कथन का क्या प्रयोजन या लाभ है? (अर्थात् कोई प्रयोजन या लाभ नहीं, यानी उनका निरूपण निरर्थक है)। (उत्तर-) नाम आदि भी भाव (तात्त्विक) हैं, क्योंकि वे (नाम आदि) भी वस्तु के पर्याय (धर्म) हैं।] व्याख्याः- यहां शंकाकार का कथन है- यहां नाम आदि (निक्षेपों) का विचार चल रहा है, इन (चारों) में, 'भाव' ही वस्तु है, क्योंकि वही विवक्षित (अभीप्सित) अर्थक्रिया में साधन होता है (अर्थात् उसी से प्रयोजन की सिद्धि होती है), जैसे अन्य उभयसंमत (वादी व प्रतिवादी-दोनों द्वारा निर्विवाद रूप में स्वीकृत) वस्तु / (उदाहरणार्थ-) जिस प्रकार भाव-इन्द्र (दानव-नाश आदि) विवक्षित अर्थक्रिया की सिद्धि में समर्थ होता है, उस तरह गोपाल बालक नाम-इन्द्र (उक्त कार्य में) समर्थ नहीं होते। अतः भाव-अर्थशून्य नाम आदि के यहां निरूपण से क्या प्रयोजन है? अर्थात् कोई प्रयोजन (या सार्थकता) नहीं है। ... इस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं- नामादयः इत्यादि / तात्पर्य यह है कि सामान्यतया 'भाव' को 'वस्तु' माना जाता हो तो सिद्धसाध्यता (अर्थात् जो हमें अभीष्ट है, वह सिद्ध हो ही गई, उसे सिद्ध करने के लिए तर्कादि की आवश्यकता नहीं) है, क्योंकि नाम आदि भी, आदि रूप से स्थापना व द्रव्य का ग्रहण करना चाहिए, (यानी नाम, स्थापना व द्रव्य- ये तीनों ही) भाव अर्थात् भावविशेष ही हैं। Mia ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 89 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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