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________________ आह- ननु मङ्गलपदार्थज्ञानस्य परिणामिकारणं जीव एव, ततस्तस्य स्वकार्यैकदेशे वृत्तिरस्तु, यथा मृत्तिकायाः, शरीरं त्वागमस्य परिणामिकारणं न भवति, अतः कथं तस्य तदेकदेशवृत्तिता?। सत्यम्, किन्तु “अण्णोण्णाणुगयाणं इमं च तं च त्ति विभयणमजुत्तं, जह खीरपाणियाणं" [अन्योन्यानुगतानामिदं च तच्चेति विभाजनमयुक्तम्, यथा क्षीरपानीययोः] इत्यादिवचनात् संसारिणो जीवस्य शरीरेण सहाऽभेद एव व्यवह्रियते, अतो जीवस्य परिणामिकारणत्वे शरीरस्याऽपि तद् विवक्ष्यते, इत्यस्याऽऽगमैकदेशता न विरुध्यते / भवत्वेवम्, तथाप्यागमतो द्रव्यमङ्गलं प्राग् यदुक्तं तेन सहाऽस्य को भेदः?, तत्रापि हि "आगमकारणमाया देहो सद्दो य" इति वचनाच्छरीरमेव द्रव्यमङ्गलमुक्तम्, अत्रापि च तदेव, इति कथं नैकत्वम्? / सत्यम्, किन्तु प्रागुपयोगरूप एवाऽऽगमो नास्ति, लब्धितस्तु विद्यत एव, अत्र तूभयस्वरूपोऽपि नास्ति, कारणमात्रस्यैव सत्त्वात्, इति विशेषः॥ इति गाथार्थः॥४५॥ तदेवं दर्शितं ज्ञशरीर-भव्यशरीरलक्षणं नोआगमतो द्रव्यमङ्गलभेदद्वयम्, सांप्रतं ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तस्वरूपं तत्तृतीयभेदमुपदर्शयन्नाह जाणय-भव्वसरीराऽइरित्तमिह दव्वमङ्गलं होइ। जा मङ्गल्ला किरिआ तं कुणमाणो अणुवउत्तो॥४६॥ अब कोई (प्रश्नकर्ता पुनः प्रश्न) कह रहा है- मङ्गल पदार्थ के ज्ञान का परीणामी कारण जीव है, अतः, जैसे मृत्तिका की घड़े के एकदेश में वृत्ति होती है उसी तरह, उस (जीव) की-अपने कार्य के एकदेश में वृत्ति हो तो हो, किन्तु शरीर तो आगम का परिणामी कारण नहीं है, इसलिए उस (शरीर) की आगम के एकदेश में वृत्ति कैसे सम्भव है? (उत्तर-) आपका कथन सही है, किन्तु 'जो पदार्थ दूध व पानी की तरह एक दूसरे में अनुगत हैं', उनमें 'यह' और 'वह'- इस प्रकार से विभाजन युक्तियुक्त नहीं होता'- इत्यादि कथन से, संसारी जीव की शरीर के साथ अभिन्नता ही (लौकिक) व्यवहार में मानी जाती है। इसलिए, जीव के परिणामी कारण होने पर शरीर की भी वह (आगम-एकदेशवृत्ति) विवक्षित है। इस तरह, इस (शरीर) की आगमैकदेशता विरुद्ध नहीं है। (प्रश्न-) चलो इसे मान लिया, किन्तु जो पहले 'आगम से द्रव्यमङ्गल' कहा था, उससे इस कथन में क्या अन्तर हुआ? क्योंकि वहां (पहले) भी आत्मा, देह व शब्द को आगम-कारण होने से शरीर को ही 'द्रव्यमङ्गल' कहा था, और यहां भी यही कहा गया है, इसलिए दोनों (कथन) एक कैसे नहीं है? (उत्तर-) सत्य है। किन्तु पहले, उपयोगरूप से ही 'आगम' का अभाव (बताया गया) है, लब्धिरूप से तो वह है ही, और यहां वह (आगम) उभय रूप (उपयोग व लब्धि-दोनों रूपों) में नहीं है, अपितु कारण-मात्र रूप से ही उसका सद्भाव है- यह विशेषता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 45 // इस प्रकार, शरीर व भव्यशरीर दोनों रूपों में 'नोआगम से द्रव्यमङ्गल' के दो भेदों का निर्देशन किया गया है, अब ज्ञशरीर व भव्यशरीर से भिन्न तीसरे भेद के निरूपण हेतु कहा (46) जाणय-भव्वसरीराऽइरित्तमिह दव्वमङ्गलं होइ। जा मङ्गल्ला किरिआ तं कुणमाणो अणुवउत्तो॥ Na ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 777
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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