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________________ सक्रियं स्यात्, अत आह- अक्रिय क्रियारहितम्, परिस्पन्दविनिर्मुक्तत्वादिति / अक्रियमपि दिगादिवत् सर्वगतं न स्यात्, अत्राहसर्वगंच सकललोकाऽवाससत्ताकम्। इदमित्थंभूतं सामान्यमेवाऽस्ति, न तु विशेषः कश्चनाऽपि विद्यते। कुत इत्याह-निःसामान्यत्वात् सामान्यविरहितत्वात्, खपुष्पवत्, यच्चाऽस्ति तत् सामान्यविरहितं न भवति, यथा घटः। तस्मादेकस्माद् द्रव्यमङ्गलसामान्यादव्यतिरिक्तत्वाद् तद्व्यतिरेके चाऽद्रव्यमङ्गलताप्रसङ्गात् सामान्यस्य च त्रिभुवनेऽप्येकत्वादेकमेव संग्रहनयमते द्रव्यमङ्गलम्, इति स्थितम् // इति गाथार्थः // 32 // अत्र विशेषवादिनयमतस्थितः कश्चिदाह- ननु कथमनेकानि द्रव्यमङ्गलानि न संभवन्ति?, यथा हि वनस्पतिरित्युक्ते वृक्षगुल्म-लता-वीरुदादयो विशेषा एव प्रतीयन्ते, न पुनस्तदतिरिक्तः कश्चिद् वनस्पतिः, एवमिहाऽपि द्रव्यमङ्गलमित्युक्तेऽनुपयुक्ततत्प्ररूपकलक्षणा विशेषा एवाऽवगम्यन्ते, न तु तदधिकं किञ्चित् सामान्यम्, अतः किं शून्य इवाऽस्मिन् जगत्येवमभिधीयते'निस्सामन्नत्ताओ नत्थि विसेसा खपुष्पं व' इति? तरह सावयव हो, क्योंकि आकाश को यदि निरवयव माना जाय तो सूर्य के उदय व अस्त (के व्यवहार में कथन) की संगति नहीं होगी। (आकाश की तरह सामान्य भी कहीं सावयव हो-) इस (सम्भावना को नकारने के) लिए कहा- वह निरवयव (अवयवहीन), अंश-शून्य है, क्योंकि उस (सामान्य) में पूर्व कोटि, पर कोटि-इस तरह विभाग नहीं किया जाता। जैसे परमाणु (नित्य व) निरवय होता हुआ, भी सक्रिय होता है, वैसे कहीं सामान्य भी सक्रिय हो-इस (सम्भावना को नकारने के) लिए कहा-वह अक्रिय है, क्रियारहित है, क्योंकि उसमें परिस्पन्द नहीं है। जैसे दिशा (नित्य व) निष्क्रिय होती हई भी. सर्वगत (सर्वव्यापी) नहीं होती. उसी तरह. सामान्य भी सर्वव्यापी न हो- इस (सम्भावना को नकारने के लिए कहा- सर्वगं च / अर्थात् सामान्य की समस्तलोकव्यापी सत्ता है। उक्त तरह की विशेषताओं (नित्यता, अवयवहीनता, निष्क्रियता व सर्वव्यापिता) से युक्त 'सामान्य' ही है, कोई विशेष ऐसा नहीं है। (प्रश्न-) ऐसा क्यों? इस (प्रश्न के उत्तर के लिए कहानिःसामान्यत्वात् / अर्थात् निःसामान्यता यानी 'सामान्य से रहित' होने से, जिस प्रकार आकाश-पुष्प (अस्तित्वहीन) होता है, उसी प्रकार जो भी घट, पट आदि पदार्थ अस्तित्व वाले हैं, वे सामान्य-रहित नहीं होते। इसलिए, द्रव्यमङ्गल भी सामान्य से अभिन्न है, क्योंकि उसे भिन्न मानें तो द्रव्यमङ्गलता का ही लोप हो जाएगा। चूंकि 'सामान्य' त्रिभुवन में एक ही है, अतः संग्रहनय के मत में एक ही द्रव्यमङ्गल है- यह सिद्ध हुआ // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 32 // अब, विशेषवादी नय को मानने वाला कोई (आक्षेपकर्ता) प्रश्न कर रहा है- क्योंजी! द्रव्यमङ्गल अनेक क्यों नहीं हो सकते? (हमारे विचार से उसकी अनेकता सम्भव है।) जैसे कि 'वनस्पति' ऐसा कहने पर, वृक्ष, गुल्म, लता, शाखा आदि 'विशेष' ही प्रतीति में आते हैं, उनसे अतिरिक्त तो कोई वनस्पति होती नहीं, इसी तरह यहां भी 'द्रव्यमङ्गल' कहने पर उपयोगरहित, मङ्गलशब्दार्थप्ररूंपक रूप (व्यक्ति-) विशेष ही समझ में आते हैं, उनसे भिन्न कोई और 'सामान्य' तो होता नहीं, अतः, शून्यवादी की तरह पूरे जगत् के लिए यह आप कैसे कह रहे हैं कि 'सामान्यरहित होने के कारण, कोई विशेष होता नहीं, आकाशपुष्प की तरह'। --------- विशेषावश्यक भाष्य - -
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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