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________________ अथवा मां गालयति भवादिति मङ्गलं संसारादपनयतीत्यर्थः। इह मङ्गलविचारे एवमादि नैरुक्ताः शब्दविदःशास्त्रवशतो व्याकरणानुसारेण भाषन्ते मङ्गलशब्दार्थं व्याचक्षते। आदिशब्दात् शास्त्रस्य मा भूद् गलो विघ्नोऽस्मादिति मङ्गलम्, सम्यग्दर्शनादिमार्गलयनाद् वा मङ्गलमित्यादि द्रष्टव्यम्, इत्यलं विस्तरेण। इह तत्त्व-पर्याय-भेदैर्व्याख्या, तत्र तत्त्वं शब्दार्थरूपम्, तत्तावद् निर्णीतम्। पर्यायास्तु मङ्गलं, शान्तिः, विघ्नविद्रावणमित्यादयः स्वयमेव द्रष्टव्याः। भेदांस्तु स्वयमेव निरूपयितुमाह- 'नामाइ चउव्विहं तं चेति', तच्च मङ्गलं नामादिभेदतश्चतुर्विधं भवति / तद्यथानाममङ्गलम्, स्थापनामङ्गलम्, द्रव्यमङ्गलम्, भावमङ्गलं च // इति गाथार्थः॥ 24 // तत्र नाम किमुच्यते? इत्याशक्य सामान्येन नाम्नस्तावल्लक्षणमाह: पज्जायाऽणभिधेयं ठिअमण्णत्थे तयत्थनिरपेक्खं। जाइच्छिअं च नामं जावदव्वं च पाएण॥ 25 // व्याख्याः- अथवा 'मा' यानी पाप को या स्वयं मङ्गल-कर्ता को भव यानी संसार से गालननिस्तारण करे, अर्थात् पापमुक्त कर संसार से छुड़ाए-यह 'मङ्गल' शब्द का अर्थ है। यहां 'मङ्गल' शब्द-सम्बन्धी विचार-प्रक्रिया में मङ्गलशब्द के इसी तरह के (अन्य) अर्थों को भी, नैरुक्तों यानी शब्दवेत्ता वैयाकरणों ने शास्त्र की अपेक्षा रखकर (अर्थात् शास्त्र के आधार पर) व्याकरणानुसार भाषण यानी अर्थ-व्याख्यान किया है। 'आदि' शब्द से (अन्य अर्थ भी ग्राह्य हैं, जैसे-) विघ्न जिसके कारण से न हों, वह 'मङ्गल' है, या सम्यग्दर्शन आदि (मोक्ष-) मार्ग में जो लीन (प्रवृत्त) कराये-वह 'मङ्गल' है -इत्यादि (निर्वचन भी) समझने चाहिएं। अब, अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है। " (चूंकि) तत्त्व, पर्याय व भेद- इन (विचारबिन्दुओं) से व्याख्या की जाती है। इनमें तत्त्व का अर्थ है- शब्द का अर्थ / वह (मङ्गलशब्द का अर्थ) निर्णीत हो चुका / (पर्याय पर विचार करें तो) मङ्गल, शान्ति, निर्विघ्नता- इत्यादि (परस्पर) पर्याय हैं- इत्यादि स्वतः जानना-समझना चाहिए। 'भेद' रूपी निरूपण करने हेतु यहां स्वयं (भाष्यकार) कह रहे हैं- नामादि चतुर्विधं तत्। अर्थात् वह मङ्गल 'नाम' आदि भेदों से चार प्रकार का है, जैसे- नाम-मङ्गल, स्थापना-मङ्गल, द्रव्य-मङ्गल, और भावमङ्गल // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 24 // (नाम आदि निक्षेप) (नामनिक्षेप) . उन (चार भेदों) में 'नाम' किसे कहते हैं? इस प्रश्न को दृष्टि में रख कर, नाम-मङ्गल का सामान्य लक्षण कह रहे हैं (25) पज्जायाऽणभिधेयं ठिअमण्णत्थे तयत्थनिरपेक्खं / जाइच्छियं च नामं जावदव्वं च पाएण // ------- ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 49 m
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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