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________________ तदेवं मङ्गलाभिधानमुपपत्तिभिर्व्यवस्थाप्य मङ्गलशब्दार्थं निरूपयितुमाह मंगिजएऽधिगम्मइ जेण हि तेण मंगलं होइ। अहवा मंगो धम्मो तं लाइ तयं समादत्ते // 22 // [संस्कृतच्छाया:- मङ्गयतेऽधिगम्यते येन हितं तेन मङ्गलं भवति। अथवा मङ्गो धर्मस्तं लाति तकं समादत्ते॥] 'अगि-रगि-लगि-वगि-मगि' इत्यादौ मगिर्गत्यर्थो धातुः, अतस्तस्याऽलच्प्रत्ययान्तस्य मञ्यतेऽधिगम्यते साध्यते यतो हितमनेन तेन कारणेन मङ्गलं भवति। अथवा मङ्ग इति धर्मस्याऽऽख्या, 'ला आदाने' धातुः, ततश्च मङ्गलाति समादत्ते इति मङ्गलं धर्मोपादानहेतुरित्यर्थः॥ इति गाथार्थः॥ 22 // अहवा निवायणाओ मंगलमिट्ठत्थपगइपच्चयओ। सत्थे सिद्धं जं जह तयं जहाजोगमाओजं॥२३॥ [संस्कृतच्छायाः- अथवा निपातनाद् मङ्गलमिष्टार्थप्रकृतिप्रत्ययतः। शास्त्रे सिद्धं यद् यथा तद् यथायोगमायोज्यम्॥] (मङ्गल पद की व्युत्पत्ति). ___ इस प्रकार, युक्तिपूर्वक मङ्गलाचरण की उपादेयता प्रतिपादित करने के बाद, मङ्गल शब्द के (व्युत्पत्तिपरक) अर्थ का कथन कर रहे हैं (22) मंगिज्जएऽधिगम्मइ जेण हिअं तेण मङ्गलं होइ। अहवा मंगो धम्मो तं लाइ तयं समादत्ते // [(गाथा-अर्थः) चूंकि जिससे हित प्राप्त किया जाता है, इसलिए (वह मङ्गल होता है।) अथवा मंग यानी धर्म, उसे जो ग्रहण करता है (अर्थात् धर्म के उपादान का जो हेतु है) वह 'मङ्गल' होता है।] व्याख्याः - अगि, रगि, मगि- इत्यादि में पठित 'मगि' धातु का 'गति' अर्थ है। मगि धातु से अलच्-प्रत्यय करने पर, 'मङ्गल' शब्द निष्पन्न होता है। जिसके द्वारा 'हित' तक पहुंचा जाता है, अथवा 'हित को प्राप्त किया जाता है. यानि 'हित' की सिद्धि जिसके द्वारा होती है. इसलिए (अर्थात हित-साधक होने के कारण) उसे 'मङ्गल' कहते हैं। अथवा 'मंग' यह धर्म की संज्ञा है। आदान-अर्थ वाली 'ला' धातु यहां प्रयुक्त है, इसलिए जो मंग यानी धर्म को ग्रहण करे, अर्थात् जो धर्मोपादान का हेतु है, उसे 'मङ्गल' कहते हैं। यह गाथा का अर्थ हुआ // 22 // (23) अहवा निवायणाओ मङ्गलमिट्टत्थ-पगइ-पच्चाओ। सत्थे सिद्धं जं जह, तयं जहाजोगमाओज्जं // [(गाथा-अर्थः) अथवा (व्याकरण) शास्त्र में अभीष्ट प्रकृति व प्रत्यय सहित 'निपातन' के द्वारा, जिस प्रकार 'मङ्गल' शब्द की सिद्धि की गई है, उसे (यहां) यथोचित रूप से नियोजित कर लेना (प्रयुक्त कर लेना) चाहिए।] ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 47 .
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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