SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 94 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [गाथा 33-35 अपना कितना काल बीत गया इसकी भी उन्हें प्रतीति नहीं होती है / जगतमें भी अत्यन्त सुखी लोगोंकी यही स्थिति होती है / [33] (प्र० गा० सं० 5) 10.0 ते जम्बुदीव-भारह-विदेहसम गुरु-जहन्न-मज्झिमगा / / 33 // . - गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 333 / / .. विशेषार्थ-जिस प्रकार मनुष्यलोकमें कतिपय शहर 100 मील अर्थात् 4 कोसका 1 योजन इस हिसाबसे 25 योजन प्रमाणके हैं। न्यूयोर्क, मोस्को, लंडन आदि शहर अस्सी-अस्सी, नब्बे-नब्बे, मीलसे अधिक विस्तारवाले सुनाई देते हैं, (माने जाते हैं) उसी प्रकार यहाँ देवलोकमें भी देवोंके नगरोंका प्रमाण दिखाया गया है। उनमें व्यन्तरदेवोंके सबसे बड़े नगरोंका प्रमाण उत्कृष्टसे जम्बूद्वीप जितना अर्थात् एक लाख योजन जितने-महातिमहाप्रमाणवाले हैं। जब कि छोटे-छोटे. नगर भरतक्षेत्र जितने अर्थात् 5266 योजन प्रमाणके और मध्यम नगर महाविदेहक्षेत्र समान अर्थात् 3368438 योजन प्रमाणके हैं / [333] टिप्पणी-यहाँ एक योजन अर्थात् 4 कोसका माप नहीं, लेकिन 10 कोसका अथवा अन्य मतसे 400 कोसका एक योजन, ऐसा शास्त्रीय माप समझना चाहिये / 2. हम रहते हैं उस पृथ्वीके नीचे एक अद्भुत सृष्टि विद्यमान है। वह असंख्य कोटानुकोटि योजन प्रमाण है / इसलिये ऐसे महान असंख्य नगर हों तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं है। अवतरण-अब व्यन्तरोंके भेद बताते हैं और उनके इन्द्रोंकी संख्या कहते हैं / वन्तर पुण अट्ठविहा, पिसाय-भूया तहा जक्खा / / 34 / / रक्खस-किन्नर-किंपुरिसा, महोरगा अट्ठमा य गंधब्बा / दाहिण-उत्तरभेया, सोलस तेसिं [ सुं] इमे इंदा // 35 / / गाथार्थ-विशेषार्थके अनुसार // 34-35 // विशेषार्थ-वे व्यन्तरदेव आठ प्रकारके हैं। उनके 1. पिशाच, 2. भूत, 3. यक्ष, 4. राक्षस, 5. किन्नर, 6. किंपुरुष, 7. महोरग और 8. गन्धर्व ये नाम हैं। 117 भरतस्येदं भारतम् / ऐसी व्युत्पत्ति संग्रहणी-टीकाकारने की है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy