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________________ * 344 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * इनमें प्रथम संज्ञा त्रिकालविषयिकी, दूसरी वर्तमानविषयिकी तथा तीसरी मोक्षमार्गाभिमुखी है। इन सबमें तीसरी संज्ञा सर्वोत्तम प्रकारकी है। इसलिए इस संज्ञाका आविर्भाव हो ऐसी भावना-आकांक्षा रखनी चाहिए। 22. गई (गति)-इसका अर्थ होता है गमन / अथवा जीव कहाँ कहाँ उत्पन्न होते हैं यह / इसकी व्याख्या हमने इसी ग्रन्थके प्रारंभमें ही बता दी है। 23. आगई (आगति)- किन-किन गतियोंसे जीव किस-किस गतिमें आते हैं उसे बताना ही आगति है। इसकी व्याख्या भी अनुवादमें इससे पूर्व आ गयी है। 24. वेए (वेद)-इस पदके अनेक अर्थ हैं। लेकिन यहाँ पर इसका एक ही अर्थ 'मैथुनाभिलाष' अभिप्रेत है। यह अभिलाष पुरुष (वेद) स्त्री (वेद) तथा नपुंसक (वेद) इत्यादि तीन प्रकारसे प्रख्यात है। 1. पुरुषवेद-जिस प्रकार श्लेष्मके रोगीको खट्टी चीजोंके प्रति स्वाभाविक आकर्षण रहता है, उसी प्रकार इस वेदकर्मके उदयसे पुरुषोंके लिए विजातीय रूप मानी जाती स्त्रियोंके प्रति दर्शन, स्पर्शन तथा समागम आदिकी जो इच्छाएँ-वासनाएँ पैदा होती है उसे पुरुषवेद कहा जाता है / इस प्रकारका वेदोदय पुरुषों में मिलता है। यह वेद घासमें अग्नि समान है। अर्थात् जिस प्रकार कोई घासको जलाता है तो घास एकदम धधककर बादमें तुरंत बुझ जाता है, उसी प्रकार स्त्री दर्शनसे प्रारंभ होता हुआ वेदोदय स्पर्शनादिसे आगे बढ़ता हुआ स्त्रीके साथ समागम (मैथुनक्रीड़ा) हो जानेके (प्रायः) बाद तुरंत शम जाता है। ___2. स्त्रीवेद-पित्त प्रकोपवालोंको जिस प्रकार मधुर द्रव्यके प्रति स्वाभाविक रूपसे अभिलाषा जनमती है, उसी प्रकार इस वेदके उदयसे स्त्रियों में विजातीय पुरूषके प्रति दर्शन, स्पर्शन तथा यावत् समागम तककी अभिलाषा-इच्छा प्रकट होती है। - इसका वेदोदय स्त्रियोंमें मिलता है। इसे उपलेकी अग्निकी उपमा दी गयी है। अर्थात् जैसे उपलेका अग्नि एक छोरसे सुलगकर बादमें धीरे धीरे आगे बढ़ता हुआ पूरे उपलेको ही जला देता है तथा लम्बे अरसे तक जलता ही रहता है, वैसे पुरुषके ' दर्शनादिकसे यह वेदाग्नि प्रकट होकर स्पर्शनादिकी आहूतिसे बढ़ता हुआ अंतमें समागम तक पहुँचकर शमन होनेके बाद भी टिका रहता है, अर्थात् यह शीघ्र उपशान्त होता नहीं है। 671. जातीय विज्ञानवादी और वैज्ञानिक इस विधानके साथ सहमत नहीं है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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