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________________ * 342. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * अब जो लोग ईहासे लेकर विमर्श तककी विचारणा करनेमें अशक्त है उसे 'असंज्ञी' कहा जायेगा। इसमें समूच्छिम पंचेन्द्रियसे लेकर पृथ्वीकाय तकके जीव आ जाते हैं। यद्यपि इन्हीं संमूच्छिम पंचेन्द्रियोंको मनोद्रव्यग्रहणाभावके कारण स्पष्ट द्रव्यमन न होनेसे असंज्ञी कहा है, लेकिन इनमें सर्वथा समझ नहीं होती है ऐसा नहीं समझना चाहिए। स्वल्पतर मनोलब्धिका ( भावमनका) अस्तित्व तो इनमें भी होता है जिसके कारण वे उत्तरोत्तर अस्फुट अर्थको समझ सकते हैं। इसलिए उनके लिए भी अव्यक्त और अतीव अल्पतर कुछ भावमन स्वीकारना ही पड़ेगा। एकेन्द्रिय वनस्पत्यादिमें अव्यक्तरूपसे (अस्पष्टरूपसे) आहारादि दस संज्ञाएँ जो देखी जाती हैं ये सब इसी भावमनके कारणसे हैं। शास्त्रोंमें 'संज्ञी-असंज्ञी' जीव इत्यादि जो शब्द आते हैं, वहाँ सामान्य कक्षाकी अहिारादि संज्ञावाले जीवोंको छोड़कर विशिष्ट प्रकारकी समझदारी रखनेवाले सिर्फ दीर्घकालिकी संज्ञायुक्त जीवोंको समझना चाहिए। इस बातका खयाल हमेशा रखें। यह दीर्घकालिकी संज्ञा मनःपर्याप्तिवाले गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्य, तिथंच, देव तथा नारकोमें देखी जाती है। 2. हेतुवादोपदेश (हेतुवादिकी)-'हेतुका अर्थ है-कारण अथवा निमित्त'। इस प्रकारसे हेतुका जिसमें कथन होता है उसे हेतुवाद कहा जाता है और उसी वादका उपदेश (प्ररूपणा) जिसमें होता है उसे हेतुवादिकी संज्ञा कहा जाता है। यह इसका शब्दार्थ हुआ। अब इसका भावार्थ यह है कि अपने शरीरके परिपालनके लिए जो जीव बुद्धिपूर्वक इष्ट पदार्थमें या कार्यमें प्रवृत्ति तथा अनिष्ट पदार्थ या कार्यसे निवृत्ति रखते हैं वैसे जीव हेतुवादिकी संज्ञावाले हैं। - ऐसे जीव धूप लगते ही मनसे सोचकर धूपसे छाँवमें और ठंड लगते ही उससे बचनेके लिए धूपमें लाभ लेनेके लिए दौड जाते हैं। यद्यपि उनके सुख-दुःखका यह 668. आहारादि संज्ञाएँ तो है लेकिन वे ओघरूप सामान्य प्रकारकी और अत्यल्प तथा मोहोदयजन्य है। इसलिए उनका ग्रहण यहाँपर अनुचित और असंगत है। अतः यहाँ तो शुभ मानी जाती ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमजन्य दीर्घकालिकी आदि संज्ञाओंका ग्रहण ही समझें / 669. 'संप्रधारण' संज्ञा यह इसका दूसरा नाम है। 670. कोई-कोई ग्रन्थमें कोई अपेक्षासे पहले हेतुवादोपदेश और बादमें दीर्घकालिकी ऐसा क्रम है। लेकिन सिद्धान्तकारोंको यह क्रम मान्य नहीं है। वे तो इसका समाधान इस प्रकार करते हैं कि शास्त्रसिद्धान्तमें संशी-असंज्ञी जीवोका ग्रहण होना यह कोई दूसरी या तीसरी संज्ञासे नहीं, लेकिन पहली 'कालिकी' संज्ञासे संज्ञी हो उनका ही ग्रहण होता है / इसकी प्रतीति करानेके लिए उक्त क्रम योग्य है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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