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________________ * 340. . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * है। इसी 24 द्वारकी गाथामें सन्ना और संज्ञी ये दोनों शब्द दो द्वार के सूचक है / उनमें प्रथम 'सन्ना' शब्द संज्ञाका द्योतक है और दूसरा शब्द संज्ञा नहीं, लेकिन 'संज्ञी' है। इसलिए प्रथम शब्द सिर्फ गुणवाचक (-अथवा दर्शक) है और दूसरा संज्ञा जिनमें हो वैसी व्यक्तियोंका सूचक है। यहाँ कौनसी संज्ञा परसे संज्ञी समझें ? तो इसका उत्तर है कि जो विचार करनेका बल धारण करती है। तो विचार कौन कर सकता है ? इसका उत्तर है जिसके पास मन है वह / तो मन किसके पास होता है ? तो पांचों इन्द्रियवाले जीवोंके पास होता है। तो क्या सभी पंचेन्द्रियोंके पास होता है क्या ? नहीं, जो मनःपर्याप्तिसे पर्याप्ता है उन्हें ही होता है। तात्पर्य यह कि मनःपर्याप्तिसे पर्याप्ता ऐसे पंचेन्द्रियोंको ही 'संज्ञी' कहा जाता है और पृथ्वीकायसे लेकर संमूच्छिम पंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें स्पष्ट मन न होनेसे ऐसे जीवोंको ‘असंज्ञी' कहा जाता है। शंका-शास्त्रमें तो आहार, भय, मैथुनादि दस प्रकारकी संज्ञा एकेन्द्रियादि जीवोंमें कही है, तो आप उन्हें भी संज्ञी क्यों नहीं कहते हैं ! समाधान-आहारादि संज्ञाएँ भले ही हो लेकिन वे सब सामान्य प्रकारकी है। साथ ही वे सब मोहोदयसे उत्पन्न होनेके कारण महत्त्वपूर्ण और शोभनरुप नहीं है। जिस प्रकार 'सो' रुपयेकी मुडीवाला धनवान नहीं कहा जा सकता है, उसी प्रकार सामान्य संज्ञाओंसे युक्त हर किसीको 'संज्ञी' नहीं कहा जा सकता है। इसलिए उसको यहाँ ग्रहण करना नहीं है। लेकिन यहाँ तो विशिष्ट ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न मनःपर्याप्तिसे पर्याप्ता मनोज्ञानवाले जीवकी जो संज्ञा है वही महत्त्वपूर्ण और सुंदरतम है। इसलिए उसका ही ग्रहण यहाँ उचित है। तो मनवाले जीवोंके लिए कौनसी संज्ञा है ! तो इनके लिए त्रिकाल विषयक दीर्घकालिकी संज्ञा है। शास्त्रमें जीवोंको संज्ञी –असंज्ञी जो कहे जाते हैं वह इसी महान् संज्ञाको लक्षित करके ही। आहारादि सामान्य संज्ञाको लेकर नहीं। अब गाथामें तो मूल पद संज्ञी है। उसे ध्यानमें रखकर अर्थ करें तो संजीके प्रकार कितने हैं ! इसे समझना चाहिए। 664. अन्य ग्रन्थोंमें 'संज्ञी' के लिए 'समनस्क' और असंजीके लिए 'अमनस्क ' शब्दका प्रयोग हुआ है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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