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________________ * योगद्वार * * 333 . बाथ व्यापारमें कारणभूत जो अध्यवसाय, विचार या परिणाम ( नतीजा ) जो हैं वह अथवा उत्साह, वीर्य, पराक्रम आदि जीवके कार्य ही योग है। आत्मामें उत्पन्न होती यह योग-वीर्य शक्ति जिस जिसके साथ जुड़ जाती है, तब यह शक्ति उसी नामसे युक्त अथवा प्रसिद्ध बनती है। यह शक्ति किसके साथ जुड़ जाती है ? तो मन, वचन और काया इन्हीं तीनोंके साथ जुड़ती है, / क्योंकि प्रस्तुत शक्तिका उपयोग तो ये तीनों चीज ही करती हैं। अर्थात् इस शक्तिका उपयोग मन जब सोचनेके लिए करता है तब मनोयोग नामसे, बोलनेके लिए जब उपयोग करता है तब वचनयोग नामसे तथा शारीरिक क्रिया के साथ जुड़ता है तव काययोग नामसे पहचाना जाता है / उपर्युक्त तीनों क्रिया करनेवाली आत्मा ही है। लेकिन वह पुद्गल द्रव्यरूप कर्मको पराधीन होनेसे घूमनेके लिए वृद्धकी लकड़ीके आधारकी तरह अगर योगकी सहायता हो तो ही वह कार्य करनेमें समर्थ बनती है / अथवा तीनों शक्तियाँ उस समय ही कार्यशील बनती है। ____ वस्तुतः देखा जाए तो वाणी अथवा मनके द्रव्योंका ग्रहण काययोगसे ही होता है। इसके कारणसे ही इन्हीं तीनों क्रियाओंमें काय व्यापार प्रधान रूप है। इसकी सहायतासे ही गमनादि क्रिया तथा वाचिक, मानसिक आदि व्यापार समर्थ बनते हैं। इसी 'अपेक्षासे तो मन, वचन और कायाको काययोगके ही प्रकार के रूपमें पहचाना जाता है। जिस समय आत्माका काया-शरीर द्वारा व्यापार शुरु हुआ कि तुरंत ही शरीरके जिस व्यापारसे पुद्गलोंका ग्रहण होता है वह अथवा इसी व्यापारको 'काययोग' कहते है। अब यह शरीर व्यापार युक्त जिन शब्द पुद्गलोंको बोलनेके लिए बाहर निकालते है तब वचनयोग और जब शरीर व्यापारसे मनके पुद्गलोंका चितन होता है तब 'मनोयोग' बनता है। . अब तीनों योगकी व्यवस्था समझाते हैं। 1. मनोयोग-मनःपर्याप्ति नामकर्मके उदयसे स्वकाययोग द्वारा द्रव्य स्वरूप मनोयोग्य वर्गणाको ग्रहण करके, मन रूप परिणमित करके, अवलंबन लेकर ( उसके द्वारा चिंतन-मनन करके ) विसर्जन करनेका जो व्यापार है वह मनोयोग है। .2. वचनयोग-भाषापर्याप्ति नामकर्मके उदयसे स्वकाययोग द्वारा द्रव्य स्वरूप भाषा वर्गणाको ग्रहण करके भाषा रूप परिणमित करके (जो कुछ कहना है उसे बोलकर ) अवलंवित होकर विसर्जन करनेका जो व्यापार है वह वचनयोग है / 647. यह बात तो व्यवहारनयसे है / निश्चयनयसे तो ये तीनों स्वतंत्र हैं /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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