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________________ * ज्ञानद्वार-मनःपर्यवशान . .323 . 4. हीयमान-द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव चारों प्रकारसे विस्तृत अवधिज्ञान अपने कार्य फलकी क्रमिक मंदताके कारण दीपकमें तेल कम होने पर जिस प्रकार चिराग निस्तेज होता जाता है (कृष्णपक्षकी चन्द्रकलाकी तरह), उसी प्रकार धीरे धीरे जो ज्ञान कम होता जाता है वह / 5. प्रतिपाति-जिस प्रकार पवनके थपेडोंसे चिराग तुरंत बुझ जाता है उस प्रकार यह ज्ञान भी अत्यंत सूक्ष्म स्वरूप उत्पन्न होकर लोकाकाशको (अरवों मील) प्रकाशित करके प्रमादादिके प्रतिकूल कारणोंसे शीघ्र प्रतिपात होता है अथवा लुप्त हो जाता है। 6. अप्रतिपाति-जो ज्ञान आगे बढ़कर प्रतिपातिकी तरह सिर्फ लोकाकाश तक ही नहीं, लेकिन उससे भी आगे बढ़कर अलोकाकाशके सिर्फ एक आकाश प्रदेशका विषय बनता है वह / यद्यपि अलोकमें रूपी पदार्थ न होनेसे देखनेलायक कुछ है ही नहीं, लेकिन शक्तिकी दृष्टि से यह बात बतायी है। और यह ज्ञान केवलज्ञानकी प्राप्ति पर्यंत रहता है। __ ऐसे ज्ञानीमें निर्मलता-पवित्रता बढ़नेसे शक्तिके प्रादुर्भावकी दृष्टिसे अलोकमें असंख्य लोकाकाश जितने क्षेत्रका विषय यदि बनता है तो, इस अवधिको 'परमावधि' कही जायेगी। ऐसे ज्ञानीको अंतर्मुहूर्तमें अवश्य केवलज्ञान प्राप्त होता है। इतना ही नहीं वे परमाणुओंको भी प्रत्यक्ष देख सकते हैं। - परमावधिवाला प्रतिपाति अवश्य होता है, लेकिन अप्रतिपातिवालेमें परमावधिज्ञान होता ही है ऐसा नियम नहीं है। 4. मैनःपर्यवज्ञान-यह चौथा ज्ञान है। यह नाम दो शब्दोंसे बना है मन और पर्यव। इनमें 'मन' अथवा 'मनु' धातु परसे 'मन' शब्द बना है। इसका अर्थ मनन, चिंतन, विचार, संकल्प होता है। यह मन भी अमुक प्रकार-आकारवाले मनोद्रव्य पुद्गलोंसे बना है। 'पर्यवे' का अर्थ होता है 'समग्र (संपूर्ण) रूपमें जानना' अर्थात् जीव द्वारा ग्रहण किए गए मनोवर्गणाके द्रव्योंको संपूर्ण रूपमें जाननेका नाम ही 'मनःपर्यव' है। और यही ज्ञान रूपी होनेसे 'मनःपर्यव' ज्ञान कहा जाता है। दूसरा पर्यव 632. पर्यव अथवा पर्याय, भिन्न-भिन्न धातु परसे बने हैं फिर भी एक ही अर्थके वाचक हैं। 633. 'मन' ज्ञाने 'मनु' बोधने // मननं मन्यते वाऽनेनेति मनस्तेन मनः / / - 634. पर्यव-इसमें परि-अवन परसे पर्यवन बनता है / और बादमें पर्यव बनता है / इसमें गत्यादि अर्थका अव धातु है / 'पर्याय' शब्द 'अय' नामकी दण्डक धातु अथवा 'इण' धातु परसे 'अयन' बनकर. परि उपसर्ग जोड़नेसे बनता है। इसमें मनःपर्यव शब्द अधिक प्रचलित है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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