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________________ * 312 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * विषय अथवा पदार्थका इन्द्रिय अथवा मनके साथ संबंध होते ही आत्मामें अव्यक्त ज्ञानोपयोग शुरु हो आता है, लेकिन इससे उसे अति अव्यक्त-अस्पष्ट बोध ( जिस प्रकार बेहोश स्थितिमें पडे हुए मनुष्यको जैसा अनुभव होता है वैसा ) होता है। इसे १२व्यंजन' अवग्रह कहा जाता है। वहाँ विषय तथा इन्द्रियोंका संयोग पुष्ट होकर ज्ञानोपयोग आगे बढता है तब 'कुछ' है ऐसा ख्याल होता है, उसे अर्थ अवग्रह कहा जाता है। ___अब 'कुछ है' तो वह क्या है ? इसके विचार या तर्क-वितर्क जो हमारे मनमें उठते हैं उसे ईहा कहा जाता है। इस प्रक्रियाके बाद हमारा मन अब किसी एक निर्णयकी ओर बढ़ता है और अंतमें 'कुछ है' का कोई पक्का निश्चय कर लेता है। कि 'यह अमुक ही है, तब ऐसे निर्णयको 'अपाय' (निर्णय) कहा जाता है। और उसी निर्णयके बाद उस पदार्थको अपने मनमें याद रखना या धारण करना उसे धारणा कहा जाता है। ___इसी धारणाके संस्कारसे फिरसे अविच्युति, वासना तथा स्मृति-ये तीन भेद उपस्थित होते हैं / कोई कोई व्यक्तिमें पूर्व या उससे भी पूर्वके जन्मका जो ज्ञानजिसे शास्त्रीय शब्दोंमें जातिस्मरण ( जन्म स्मरण ) ज्ञानसे पहचाना जाता है वह जो उत्पन्न होता है, यह भी इस (धारणाभेद अनुसार बताये गये ) स्मृति-मतिज्ञानका ही प्रकार है। जिसमें बहुत साल पुराना स्मरणका संस्कार निमित्त (कारण) मिलते ही अथवा योग्य समय पर प्रकट हो जाता है और अपना पूर्वभव देखता है / यह ज्ञान हालमें अधिकतर चढती उम्रमें अधिक देखा जाता है / यह अनिन्द्रिय अर्थात् मनोनिमित्तक मतिज्ञान है। इस मतिज्ञानके अनेक प्रकार हैं। इन सभी प्रकारोंको वर्गीकृत करके इन्हें 28 6 12. देखिये फूटनोट 611, पेज नं. 311 / 613. मिट्टीसे बने किसी छोटेसे दियेमें ( कोडिएमें ) 99 बूंद सोख जाते हैं और १००वा बूंद जब गिरता है तब वह टिक जाता है और पात्र भीग जाता है। यहाँ 99 बुंदकी हम व्यंजनावग्रहके साथ तुलना कर सकते हैं और १००वें बूंदको अर्थावग्रहके स्थानपर समझ सकते हैं। यहाँ 99 बूंद १००वें बदके सहायक ही थे; जिसके कारण, 100 वाँ बूंद टिक सका था। यह परिभाषा तो स्थूल है, सूक्ष्म परिभाषा दूसरे प्रकारकी है / 614. 1. अवग्रह-Perception. (प्रंसेप्शनः प्रत्यक्ष ज्ञान, बोध, अवगम) 2. ईहा-Conception. ( कन्सेप्शनः अवधारण, संकल्पन ) 3. अपाय - Judgment. (जजमेन्टः निर्णय, न्याय, फैसला ) 4. धारणा - Retention. ( रिटेन्शनः अवधारण, स्मरण, अवरोधन) 615. अनिन्द्रिय यह मनका वाचक शब्द है / देहधारी आत्माकी प्रवृत्ति-निवृत्तिमें इन्द्रियाँ और मन ये दोनों चीज मुख्य हैं। मन इन्द्रिय नहीं है इस लिए उसे उक्त शब्दसे दर्शाया गया है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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