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________________ '* दृष्टिद्वारका विवेचन * * 303. सत् दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन सभी जीव ऐसा अंत ला सकते हैं ऐसा बनता नहीं है, अगर ऐसा बनता तो सारा संसार अनोखा ( अद्भुत, सुंदर) बन जाएँ। 2. सम्यग्दृष्टि - सम्यग्दृष्टि अर्थात् पदार्थके प्रति सच्ची श्रद्धा / सत्को सत् स्वरूप और असत्को असत् स्वरूप ही जो मानते हैं वह / यह दृष्टि धर्मको धर्म, अधर्मको अधर्म, हेयको हेय और उपादेयको उपादेय ही मानती है। इतना ही नहीं, इसके अतिरिक्त यह दृष्टि आत्माको आत्मसम्मुख करती है जिसके कारण यह सत्यसे परिपूत (पूर्ण रूपसे शुद्ध, अति पवित्र) दृष्टि है। ___अनादिकालसे रागद्वेषकी तीव्र चिकनाहटसे मिथ्यादृष्टि - चतुर आत्मा किसी समय कोई विशिष्ट प्रकारके आध्यात्मिक प्रयत्नसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्मोंको अमुक समयके लिए उपशान्त करती है तब उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है, इस लिए मिथ्यात्वका उपशम जहाँ तक प्रवर्तित होता है वहाँ तक उसकी विवेकदृष्टि टिकी रहती है, लेकिन आत्मा जब फिर से निर्बल बन जाती है तब मिथ्यादृष्टि पुनः उदयमान होती है। इस प्रकार उन मिथ्यात्व मोहनीय कोमें अमुकका क्षय और अनुदित कर्मका उपशम जब प्रवर्तित रहता है तब वैसी आत्माको क्षयोपशम दृष्टिवाली आत्मा कही जाती है और जब भिथ्यात्व मोहनीय कर्मका सत्तामेंसे सर्वथा क्षय होता है, उसके क्षयसे कारण उत्पन्न दृष्टिको क्षायिक दृष्टि कही जाती है। . यहाँ उपर्युक्त तीनों दृष्टियाँ अपने-अपने उदयकालपर सम्यग् (सम्यग् दृष्टि) होती है। इनमें उपशम क्षयोपशम दृष्टि ऐसी है कि जो आनेके बाद वापस चली मी जाती है, लेकिन. क्षायिक एक ऐसी दृष्टि है कि जो एकबार मिल जाने पर अनंतकाल तक टिकती है। क्योंकि मोहनीयकर्मकी मलिनताका सर्वथा विनाश हुआ है, जिससे उन जीवोंमें सत् पदार्थके प्रति श्रद्धामें अंश मात्र निर्बलता (अश्रद्धा) नहीं होती। 3. मिश्रदृष्टि-शुद्ध और अशुद्ध प्रकारके मिथ्यात्वमोहनीय ( अर्थात् मिश्रमोहनीय) कोके उदयवाले जीव मिश्रदृष्टिवाले होते हैं / अर्थात् वे सम्यगधर्म और मिथ्या धर्म दोनों तरफ आकर्षित होते हैं। यह मिश्रदृष्टि उसके मनमें यह धर्म भी अच्छा है और अन्य धर्म भी अच्छा है ऐसा मिश्रभाव पैदा करवाती है / फलस्वरूप सर्वज्ञोक्त तत्त्वमें राग मी नहीं करवाती है और द्वेष भी नहीं / - ये तीनों दृष्टियाँ दर्शनमोहनीयके घरकी ही है। इस कर्मके मलीन और तीव्र रसवाले दलिये उदयमें होते है तब इन्हीं दलियोंमेंसे मिथ्यादृष्टि ( जीवके कुछ उत्तम
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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