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________________ * 270 . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . इस नूतन शरीरको पास (नजदीक, समीप) ही विचरण करते केवली तीर्थंकर या केवली भगवंतके पास पहुंचाते हैं। केवली तो अपने केवलज्ञानके बलसे आये हुए उस शरीरको देखते हैं और आहारक शरीरी मुनिके संदेहका समाधान केवली भगवंत बराबर करते हैं। यह समाधान हो जानेके बाद शरीर वापस चला जाता है। तथा ग्रहण किए गये आहारक शरीर प्रायोग्य पुद्गल परमाणुओंका विसर्जन कर देते हैं / जिस प्रकार किसी समाधानके लिए शरीर ग्रहण करते हैं उसी प्रकार जिनेश्वरदेवकी समवसरणकी ऋद्धि देखनेके लिए अथवा कोई जीवदया आदिके महान् लाभके लिए मी यह शरीर रचते हैं / इसी शरीरसे अंतर्मुहूर्तमें ही सर्व कार्य निपटाना ( समेट लेना ) पड़ता है। यह शरीर अनुत्तर विमानके देवोंके महान् शरीरसे भी अधिक मनोहर तेजस्वी, स्फटिक रत्नके समान अति निर्मल और स्वच्छ होता है / इस आहारक शरीरकी लन्धि एक जीवको अपने संसारकाल दरमियान भिन्न भिन्न भवकी अपेक्षासे अधिकमें अधिक चार बार प्राप्त होती है / यहाँ एक बात ध्यानमें रखनी चाहिए कि उत्तर वैक्रिय शरीर, गुणप्रत्ययिक वैक्रिय शरीर तथा आहारक शरीर रचना हो तब शरीर द्वारा (वैक्रिय तथा आहारक) समुद्घात नामकी आत्माकी एक विशिष्ट क्रिया होती है। इसी क्रियाके द्वारा ही वे उसी विभिन्न शरीरके वर्गणायोग्य पुद्गलोंका अपने आत्मप्रदेशों द्वारा अवगाहित क्षेत्रमेंसे ग्रहण करता है तथा उससे ही इन्हीं विभिन्न उत्तर शरीरोंकी रचना कर सकते हैं / एक ही व्यक्ति चाहे कितने ही शरीरोंकी रचना क्यों न करें, लेकिन मूल शरीरमें आये हुए आत्मप्रदेशोंका उत्तरशरीरके आत्मप्रदेशोंके साथका सम्बन्ध जंजीरकी समान अटूट रहता है। 4. तैजस शरीर-जगतमें तैजस जातिके उप्ण पुद्गल स्कंध रहा है। इसी जातिके पुद्गल स्कंधोंसे जो शरीर बनता है उसे तैजस शरीर कहा जाता है। यह शरीर बहुत ही सूक्ष्म शरीर है / जिस प्रकार ऊपरि तीनों शरीरोंमें इन्द्रियाँ होती है, उस प्रकार इस शरीरमें इन्द्रियाँ होती नहीं है। इसका सामान्य आकार भले ही हो, लेकिन अमुक जातिका विशिष्ट आकार जो मिलता है ऐसा भी नहीं है / यह शरीर अति अविकसित ऐसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म (निगोद) जीवसे लेकर अतिविकसित हर किसी संसारी जीवमें रहा है। यह हमारी सामान्य छानस्थिक दृष्टिसे अगोचर है / (प्रायः) यह शरीर अन्य शरीर (औदारिक, वैक्रिय) के साथ ही रहता है / यह शरीर अनादिकालसे लेकर मोक्ष जानेके अतिम
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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