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________________ * 254. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * ... द्रव्यायुष्य अर्थात् जितने कर्म पुद्गलोंको जीव लेकर आवे उतने पूर्ण करके ही मरे। यह एक निश्चित बात है। लेकिन कालायुष्यमें अर्थात् अमुक बरस जीनेकी मर्यादामें परावर्तन जरूर हो सकता है। इसी लिए अकालमें भी जीवन दीपक बुझ जाता है। उस समय भी आयुष्यके सर्व पुद्गल तो अवश्य क्षय पाते हैं, परंतु उसमें सर्व काल स्थितिका क्षय नहीं होता। लेकिन वह स्थिति संक्षिप्त हो सकती है। यह स्थिति सात प्रकारके उपक्रमोंसे तूटनेकी संभावना है। आयुष्य घटनेके असंख्य निमित्त कदम कदम पर खड़े होते हैं। लेकिन बढ़नेका कोई निमित्त विश्वमें अस्तित्वमें नहीं है / और इसका कारण यही है कि आयुष्य गत भवमेंसे नियत होकर बादमें ही जीव आगामी भवकी देह धारण करता है। एक भवका आयुष्य पूर्ण होने पर ही दूसरे भवका उदित होता है / एक देह छोड़कर दूसरी देह धारण करनेमें एक से चार समय तकका समयांतर रहता है। लेकिन नये भवके आयुष्य कर्मका उदय तो उस समय चालू हो गया ही होता है। लेकिन शरीर संयोग उत्पत्तिके प्रथम समयसे ही पर्याप्ति बनाते शुरु हो जाती है। समग्र .. संसारमें अन्य प्राणोंके अस्तित्वमें विरह पड़ता है लेकिन आयुष्य प्रणिका विरह एक समय भी नहीं पड़ता। क्योंकि दूसरे प्राण तो उत्पत्ति स्थानमें उत्पन्न होनेके बाद इन्द्रिय 548. एकेन्द्रिय आदि जिस जीवके जितने प्राण होते हैं, उन प्राणों में आयुष्यके सिवाय दूसरे प्राणोका एक भवसे दूसरे भवके बिच अंतर पडता है / लेकिन आयुष्यका जरा भी अंतर नहीं पडता / पांच इन्द्रिय रूपी प्राण एक भवमेंसे दूसरे भवमें उत्पत्ति स्थानमें पहुँचनेके बाद इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होनेके बाद इन्द्रियप्राण तैयार होता है / शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेके बाद शरीरबल नामका प्राण तयार होता है / श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति होनेके बाद श्वासोच्छ्वास प्राण तैयार होता है / भाषा पर्याप्ति पूर्ण होनेके बाद वचन बल और मनः पर्याप्ति पूर्ण होनेके बाद मनोबल नामका प्राण तैयार होता है / इस तरह एक भव पूर्ण होनेके बाद दूसरे भवकी शुरुआतसे ही सारे प्राणकी हाजिरी नहीं होती / बिचमें अंतर्मुहूर्त आदिका आंतर पडता है / परंतु आयुष्य प्राणमें एक समयका भी अंतर नहीं पडता / एक भवका आयुष्य जिस क्षणमें संपूर्ण भोगा गया इससे अनंतरक्षणमें आते भवके आयुष्यका भोग शुरू हो जाता है। वक्रागतिसे एक भवमेंसे दूसरे भवमें उत्पन्न होनेवाले जीवको वाटमें बहते ( अपान्तरालगतिमें ) दूसरे कोई प्राण नहीं होते लेकिन आयुष्यप्राण तो आगामी भवके आयुष्यके भोगकी अपेक्षासे अवश्य होते हैं। मृत्युका समय नजदीक आने पर इन्द्रियाँ, वचनबल, मनोबल आदि प्राण प्रायः क्षीण हो जाते हैं परंतु आयुष्य नामका प्राण तो जीवनके अंतिम समय तक अवश्य होता है / विश्वमें कोई भी संसारी जीव ऐसा नहीं मिलेगा जिसे आयुष्यप्राणका भोग वर्तित न हो, इन्द्रियादि दुसरे प्राणोंके लिए तो ऊपर बताए अनुसार अंतर पडता है। लेकिन आयुष्यप्राणका अंतर एक समय भी नहीं पडता / दूसरे प्राण के सिवा जीवन टिक सकता है, लेकिन आयुष्यके बिना जीवन टिक नहीं सकता अतः सारे द्रव्य प्राणों में आयुष्यप्राण मुख्य है / ये सारे इन्द्रियादि दस प्राण अलग अलग कर्मके उदयसे प्राप्त होनेवाले होनेसे द्रव्यप्राणसे पहचाने जाते हैं।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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