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________________ / 244. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * 5. विषयग्रहण-क्षेत्रमर्यादा-स्पर्श, रसन और नासिका, ये तीनों इन्द्रियाँ सामान्यतः नौ योजन (36 कोस) दूर रहे पदार्थोंका ज्ञान पा सकती हैं, अर्थात् उतनी दूर रहे पदार्थों से आए हुए पुद्गलोंका स्पर्श ग्रहण कर सकती हैं, उससे अधिक दूर रहे पुद्गलोंका स्पर्श नहीं कर सकतीं। चक्षु एक लाख योजन दूर रहे ( निस्तेज ऐसे पहाड आदि) पदार्थाको देख सकते, कर्णेन्द्रिय बारह योजन दूर होते शब्दको सुन सकती है। ____ जघन्यसे चक्षुइन्द्रिय. अंगुलके संख्यातवें भाग पर दूर रही वस्तुको और शेष चार अंगुलके असंख्यातवें भागमें रहे विषयोंका अवबोध कर सकती है। जिस तरह दूरसे मेघगर्जनाकी आवाज कर्णेन्द्रिय सुन सकती है। और वर्षाऋतुमें पहली वृष्टि होने पर दूरसे 'पृथ्वीमें रही गंध घाणसे ग्रहण कर सकते हैं उसी तरह . गंधमें तीखापन है या कडुआहट उसका अनुभव रसनेन्द्रिय कर सकती है। और समुद्र, नदी आदि जलाशयोंको स्पर्श करके दूर दूरसे आते ठंडे पवनसे शीत स्पर्शका अनुभव स्पर्शेन्द्रियको होता है। 6. प्राप्याप्राप्यपन- चक्षु और मन, ये दोनों अपनेको प्राप्त नहीं हुए ऐसे विषयोंको जानते हैं और शेष इन्द्रियाँ स्वप्राप्त विषयोंका ही मानो ध्यान करती हैं। सामान्यतः सवसे सूक्ष्म इन्द्रिय चक्षु और सबसे बड़ी स्पर्श कहलाती है। दूसरी एक बात अधिक समझनेकी कि-एक इन्द्रियका काम सामान्यतः दूसरी इन्द्रियसे नहीं हो सकता, लेकिन तपश्चर्यादि द्वारा विशिष्ट लब्धि-शक्ति प्राप्त की हो ऐसे संभिन्नश्रोत लब्धिवाले मुनि एक ही इन्द्रियसे अनेक इन्द्रियोंका काम कर सकते हैं। इस तरह पांच इन्द्रिय विषयक विवेचन यहाँ पूर्ण होता है / / तिबल - तीन बल भूमिका-प्राणियोंमें जो ताकत होती है, वह इन तीन बलमेंसे होती है। यहाँ तीन बलसे मन, वचन और काया, इन तीनका बल लेनेका है। विश्वमें ऐसे भी मनुष्य और तिर्यच हैं कि जिनके ये तीनों बल होते हैं। यों तो तीनों बल धारण करनेवाले जीव चारों गतिमें हैं। मनका बल मिला हो तो जीव मनन, चिंतन या विचार, वचन आदि वचन बलकी प्राप्तिसे वाणी या उच्चार और कायाका बल मिला हो तो हलचल या बर्ताव आदिका बल, इस तरह जीव तीनों वलसे विचार, वाणी और वर्ताव करनेकी लब्धि अथवा शक्ति प्राप्त करता है। ये तीनों शक्तियाँ शरीरधारी जीवमें ही रही होती हैं। इसमें मनो
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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