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________________ .230 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * पुद्गलोंको ग्रहण करनेवाला कर्ता स्वरूप जीव है, ग्रहण होनेवाले औदारिकादि पुद्गल कर्म हैं / कार्मण काययोग करण है। औदारिक आदि प्रति विशिष्ट पुद्गलोंका ही ग्रहण हो उसमें औदारिक आदि प्रति विशिष्ट नामकर्मका उदय कारण है। इन पुद्गलोंके आहरण-ग्रहण करनेको आहार पर्याप्ति गिनी जाती है। उपरांत ग्रहण किये गए उन उन पुदगलोंमेंसे निःसार भाग दूर करना और सारभूत विभाग अलग करनेका नाम भी आहार पर्याप्ति है। इन पुद्गलोंके उपचय द्वारा जो जो शक्तियाँ भविष्य में प्रकट करनी हैं, उन शक्तियोंको निःसार पुद्गलोंको दूर करके सारभूत पुद्गलोंमेसे. प्रकट करनी हैं। रोटी या रोटा बनाना हो तब आटा लेनेके बाद छलनीसे छानकर थूले जैसा नि:सार भाग निकालकर जो बारीक आटा छलनीसे नीचे पडता है उसका कणक बांध नेके बाद क्रमशः रोटी बनती है। उस तरह औदारिक योग्य पुद्गल हों या श्वासोच्छवास भाषा किंवा मनोयोग्य पुद्गल हों उन हरेक प्रकारके ग्रहण किए जाते पुद्गलोंमें अमुक भाग निःसाररूप और अमुक भाग साररूप होता है। उन दोनोंका विभाग करना यह कार्य भी आहार पर्याप्तिका है। सिर्फ दूसरी पर्याप्तिकी अपेक्षा आहार पर्याप्तिमें एक विशेषता है कि उत्पत्तिके जिस-प्रथम क्षणमें पुद्गलोंका ग्रहण हुआ उसी क्षणमें : उस आहार पर्याप्ति नामकी शक्तिने ग्रहण होते पुद्गलों में सार और निःसार (रस और खल) ऐसे दो विभाग किए इतना ही नहीं परंतु प्रकट हुई उस आहार पर्याप्तिरूप शक्तिने उत्पत्तिके प्रथम क्षणसे जीवनके अंतिम समय तक प्रत्येक समय पर अथवा. जब जब जरुरत लगी तब तब उसके कार्य योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करनेका तथा साथ साथ उसमें खल और रसका विभाजन करनेका कार्य भी चालू रखा। आहार पर्याप्ति नामकी शक्ति प्रकट होनेका क्षण उत्पत्तिका प्रथम समय और उस शक्तिका कार्य प्रथम क्षणसे लेकर जीवनके अंतिम समय तक है। आहार पर्याप्ति कारण है और जीवनपर्यंत ग्रहण होते पुद्गलोंमें खल और रसका विभाजन कार्य है। इस अपेक्षासे ही आहारपर्याप्ति (खल और रसको अलग करने की शक्ति) प्रकट होने में एक समयका ही काल है। जिस क्षणमें आत्मा उत्पत्तिस्थानमें आई उसी क्षण में ऊपर बताए अनुसार औदारिक आदि पुदगलोंको ग्रहण करनेका तथा उनमें खल और रसका विभाग करने का कार्य हुआ। उत्पत्ति के प्रथम क्षणसे ही सार भाग (रस) रूपमें विभक्त हुए औदारिक आदि पुदगलोंको सात धातुरूपमें अर्थात् शरीररूपमें परिणत करनेका कार्य भी शुरु किया। लेकिन ग्रहण किए गए पुद्गलोंमें खल और रसका विभाग करना उस कार्यकी अपेक्षा रसीभूत पुद्गलोंको सात धातुरूपमें-शरीररूपमें परिणत करनेका कार्य सूक्ष्म होनेसे एक दो समयमें उन पुद्गलोंको सात धातुरूपमें परिणत करनेकी शक्ति प्रकट न हुई परंतु अंतर्मुहूर्त तक प्रत्येक समयमें शरीर पर्याप्ति नामकर्मके उदयका असर उन रसीभूत पुद्गलों पर चालू रहने के बाद उन पुद्गलों में ही एक ऐसी शक्ति पैदा हुई कि उत्पत्तिके प्रथम क्षणसे अन्तर्मुहूर्त तक ग्रहण किए गए औदारिक आदि पुद्गलोंमें आहार पर्याप्तिने जो सारभूत भाग अलग किया था उसमें तो सात धातुरूपमें-परिणमन हुआ। परंतु आगे
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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