SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 621
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * पर्याप्ति संबंधमें विशेष स्वरुप . .225. .4-5. उच्छवास, भाषामें भी तत्प्रायोग्य पुद्गलोंका गमनागमन होता ही है। अतः उसकी घटना इन्द्रिय पर्याप्तिके साथ घटित होनेसे उस प्रकार समझ लेना / 6. मुकाम तैयार होनेके बाद दीवानखाना, बैठकका कमरा, सोनेका, भोजनका स्थान कहाँ रखना आदि हिताहितकी दृष्टि से सोचकर जैसे निश्चित किया जाता है वैसे पांच पर्याप्ति रचकर फिर अपने हिताहितकी दृष्टिसे किस प्रकार चलना, किस तरह सारा व्यवहार करना इसके लिए विचारशक्ति रूप मनःपर्याप्तिकी जरूरत पड़ती है। इस तरह पर्याप्तियोंकी घरके साथ घटना बताकर समझ दी गई। क्या मन पर्याप्तिरूप नहीं है? तत्त्वार्थग्रन्थमें मनः पर्याप्तिको इन्द्रिय पर्याप्तिमें गिनकर पांच पर्याप्तियोंका वर्णन किया है। व्यवहारमें भी मनको छठी इन्द्रिय संबोधित की जाती है। शंका हो कि मन तो अनिन्द्रिय है तो उसे इन्द्रिय कैसे गिना जाए ? इसका जवाब यह है कि इन्द्रियोंकी तरह मन साक्षात् किसी विषयका ग्राहक नहीं है अतः उसे स्पष्ट रूपसे इन्द्रिय नहीं कहा जाता, लेकिन सुखादि वगैरहका साक्षात् अनुभव वह करता होनेके कारण उस अपेक्षासे और साथ ही मन, इन्द्र अर्थात् आत्मा और उसका लिंग-लक्षण होनेके कारण इस अर्थकी दृष्टिसे इन्द्रिय कही जाती है। इस दृष्टिसे इन्द्रिय पर्याप्तिमें समावेश किया जा सकता है। आहार पर्याप्तिकी दूसरी व्याख्या- तत्त्वार्थभाष्यकारने की आहार पर्याप्तिकी व्याख्या अलग रीतसे है। वे बताते हैं कि शरीर, इन्द्रिय, भाषा आदि सारी पर्याप्तियोंके योग्य दलिक द्रव्योंको ग्रहण करने रूप क्रियाकी समाप्ति वह आहार पर्याप्ति / सबका प्रारंभ साथमें, अन्त साथमें नहीं-छः पर्याप्तियोंमें प्रथमकी तीन पर्याप्तियों-शक्तियोंका कार्य तो प्रथम समयसे ही शुरु हो जाता है जबकि उच्छवासादि अन्तिम तीन पर्याप्तियोंका कार्य उन उन वर्गणाओंके ग्रहण, उन उन पुद्गलोंकी रचनाके बाद होता है। परंतु तीनोंका प्रारंभ तो प्रथम समयसे ही शुरु हो जाता है। प्रथम समय पर सामान्य स्वरूपमें ग्रहण किए जाते पुद्गलोंमेंसे जीव कुछको शरीर रूपमें उपयोगमें लेता है, कुछका इन्द्रियोंकी रचनाके काममें उपयोग करता है, कुछको उच्छ्वास करण, भाषाकरणरूपमें और कुछको मनःकरणरूपमें उपयोगमें लेता है। पुद्गल बृ. सं. 29
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy