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________________ * 194 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * कि नये जन्ममें एकाएक शिथिलबन्ध नहीं हुआ है, गतजन्ममें ही उसका कारण कार्य भाव हो गया है इतना उक्त दोनों दोषका असंभव है / / __" अपवर्तन और अनपवर्तनमें तफावत अगाऊ बताया है फिर भी पुनः दृष्टांतसे सोचे तो समान भिगोई गई दो धोतीमेंसे एकको बराबर खुली करके सुखाई और दूसरीको सिमटी हुई भीगी रख दी। खुली की हुई जल्दी सूख जाती है और सिमटी हुई विलंबसे सूखती है। यहाँ जलका प्रमाण दोनोंमें समान है। शोषण "क्रिया सम ही-समान परिस्थितिमें ही चलता है फिर भी समयमें न्यूनाधिकपन कैसे हुआ ? तो वस्त्र विस्तार और संकोचके तफावतके कारण ही। यहाँ जीव आयुष्यकर्मके पुद्गलोंको,. अपवर्तन या अनपवर्तनमें समान ही भोगते हैं। ( समान प्रमाण हो वहाँ) मात्र अपवर्तनमें आत्मा एक साथ भोगकर क्षय करते है और अनपवर्तनमें क्रमशः भोगा 'जाता है। यह अपवर्तनीय आयुष्य सोपक्रमी ही होता है अर्थात् इस आयुष्यका क्षय बाह्य उपक्रमों के निमित्तसे ही होता है। जब कि अनपवर्तनीयमें उपक्रम नहीं आते ऐसा नहीं है। आवे भी सही, लेकिन वहाँ वे उपक्रम अपना कुछ भी बता नहीं सकते। जो बात. आनेवाली गाथामें ही कहते हैं। [332-333 ] अवतरण-अब पांचवें अनपवर्तन आयुष्यकी व्याख्या कहते हैं। जं पुण गाढ निकायणबंधेणं पुव्वमेव किल बद्धं / तं होइ अणपवत्तण जोग्ग कमवेअणिजफलं // 334 // गाथार्थ-विशेषार्थ के अनुसार / // 334 / / / विशेषार्थ-शिथिल बंधवाले अपवर्तनीय आयुष्यकी बात कही, अब गाढ बंधवाले और इसी कारण अनपवर्तनीय कहे जाते आयुष्यकी बात करते हैं। इस जीवको गत जन्ममें आयुष्यके बन्धकालमें तथाप्रकारके तीव्रकोटिके परिणाम आ जाए तो उस समय जन्मान्तरके लिए ग्रहण किए जाते आयुष्यके पुद्गल बडे प्रमाणमें और मजबूत जत्थेमें पिंडित करके ग्रहण करता है अतः इस आयुष्यका बन्ध बहुत ही गाढ-मजबूत पडता है, जिसे निकाचित-निरूपक्रमी और इस गाथाके शब्दानुसार अनपवर्तनीय बन्ध कहा जाता है / ऐसे आयुष्यको कोई उपक्रम ही नहीं लगता, लगे तो आयुष्य स्थितिके एक समय जितना भी हास करने शक्तिमान नहीं बनता, ऐसा आयुष्य जीवका जन्मान्तरमें उदय आवे तब क्रमशः ही भोगा 486. बिजलीके चूल्हे और देशी चूल्हे. पर समान प्रमाण पानीकी शोषण क्रियाफा दृष्टांत भी घटाया जा सकता है। इसके बारेमें तो अनेक दृष्टांत मिलेंगे /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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