SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 571
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * आयुष्यमीमांसा और उसका सात प्रकार * चार स्थितिमें प्रथम स्थिति ( अपवर्तन) आयुष्यकी कमी हो उसको सूचित करता है / दूसरी स्थिति ( अनपवर्तन ) चाहे कैसे भी प्रतिकूल संयोगोंमें आयुष्य-समय मर्यादाका जरा भी हास न हो उसे सूचित करता है। ____ अब यह कमी किस कारणसे होती है और किससे नहीं होती ? इसके दो कारण बताये हैं। एकका नाम 'उपक्रम' दिया है और दूसरेका नाम 'अनुपक्रम' दिया है। उपक्रम अपवर्तनका कारण है और अनुपक्रम अनपवर्तनका कारण है। इस तरह यहाँ कार्यकारण भावकी व्यवस्था समझना। यहाँ दोनों कारणोंकी व्याख्या भी जणाते हैं। 4. अपवर्तन-लंबे अरसे तक क्रमशः वेदने-भोगने योग्य बंधी आयुष्य स्थिति को, तथाप्रकारके उपद्रवादि अनिष्ट निमित्तो मिलनेसे परावर्तन हो अर्थात् दीर्घ स्थितिको हस्व-अल्पस्थिति करके भोगे वैसे आयुष्यको अपवर्तन जातिका कहा जाए / _ एक सिद्धान्त समझ रखना कि, जन्मान्तरकी बद्धआयुष्य कभी संभवित है; लेकिन उसमें वढावा तीनों कालमें नहीं हो सकता। अर्थात् 100 बरसका आयुष्य बांधकर जन्मा 100 बर्षसे उपरांत, एक घण्टा तो क्या, एक पल भी अधिक नहीं जी सकता, उलटा 100 वरसायुषी पांच वर्षमें या यावत् गर्भमें उत्पन्न होते तुरंत ही मृत्य पा ले यह संभवित है / 5. अनपवर्तन-अपवर्तनसे विपरीत, जन्मान्तरसे प्रस्तुत भवमें भोग्यमान जितना आयुष्य बांधकर आया हो उतना अवश्य भोगता ही है। अर्थात् जिसमें परिस्थितिका जरा भी हास हुए बिना संपूर्णरूपसे भोग सके वह / 6. उपक्रम-आयुष्यका अपवर्तन-फेरफार-हास करनेवाले कारण / 7. अनुपक्रम-उपक्रमसे उलटा अर्थात् आयुष्यका हास करनेवाले कारणोंका अभाव, उसके पर आयुष्य के साथ संबंध रखनेवाली बावतें बताई / आयुष्यकर्म विचारणा अब हम आयुष्य के बारेमें थोडी समीक्षा सोचेंगे। इसमें प्रथम आयुष्य अर्थात् क्या ! जिसके द्वारा जीव विवक्षित किसी भी भवमें, अथवा उस विवक्षित भवके देहमें अमुक काल पर्यंत रह सके उस शक्ति-साधनका नाम आयुष्य अथवा जिससे जीव परभवमें जा सके उसका नाम भी आयुष्य / अपनी देहमें अपनी आत्मा जितना समय रह सके, वह इस आयुष्य शक्तिके वलसे ही। तब यह शक्ति क्या है ! इस प्रश्न उत्तरमें यह आयुष्य कोई दृश्य विद्युतादि शक्ति, पदार्थ या रसायनादि नहीं है, परंतु यह एक
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy