SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 563
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * योनिकी व्याख्या तथा कुलकोटीका वर्णन . . 167 . दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय इन प्रत्येककी दो-दो लाख, देवता, नारक और पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्रत्येककी चार चार लाख, मनुष्यकी चौदह लाख योनिसंख्या है। सर्व मिलकर बीवायोनिकी संख्या “चौरासी लाख होती है, जो प्रसिद्ध है। ... "योनि किसे कहे ! तो तैजस और कार्मण शरीरधारी जीव जिस स्थानमें औदारिक, बैक्रिय शरीरके योग्य पुद्गल स्कंधोंके साथ (तप्तलोहवत्) जुडे उसे योनि' कहते हैं। अथवा एक जन्ममेंसे मृत्यु पाकर दूसरा जन्म धारण करने को दूसरे जन्मके योग्य देहकी रचनाके लिए ग्रहण किये पुद्गल, सहवर्ती कार्मण शरीरके साथ जहाँ तप्तलोहजलवन् एक बन जाए उसे भी योनि कहते हैं / योनि आधार है और जन्म आधेय है। अगरचे व्यक्तिभेदसे वे योनियाँ असंख्य प्रकारकी हो जाती हैं, क्योंकि सर्व जीवोंके *शरीरकी संख्या उतनी है और प्रत्येकको व्यक्तिगत गिननेसे वर्णादि भेदसे उतनी होती ही है, परंतु यहाँ व्यक्तिभेदसे गिनती नहीं करनी है, साथ ही उस तरह गिनती भी अशक्य है, अतः समान वर्ण, गंध, रस, स्पर्शवाली संख्य-असंख्य जितनी योनि हों [वे भी] उन उन समान वर्णादिवाली सर्वयोनिकी एकत्र एक जाति हुई कहलाती है, जैसे समान संगवाले सैकों या हजारों घडे भी जातिभेदसे एक ही जातिके गिने जाते हैं वैसे, और इस तरह करें तो ही प्रति जीवराशिमें लाखकी संख्यामें होती योनिकी गिनती मिल जाएगी। [319-320] . अवतरण–योनि विषयक व्याख्या कहकर अब किस जीवनिकायमें कितनी कुलकोटी है ! उसे कहते हैं / एगिदिएसु पंचसु, बार सग ति सत्त अट्ठवीसा य / विअलेसु सत्त अड नव, जलखहचउपयउरग भुअगे // 321 // अद्धतेरस बारस, दस दस नवगं नरामरे नरए / बारस छवीस पणवीस, हुंति कुल कोडि लक्खाई॥ 322 // इग कोडि सत्तनवई, लक्खा सडढा कुलाण कोडीणं // 3223 // 468. संग्रहणीकी लघु टीकामें व्यक्तिभेदके लिए अनन्त शब्द प्रयुक्त है तो वहाँ जीवकी विवक्षासे समझना / शरीरकी विवक्षासे तो असंख्य शब्दका ही प्रयोग होता है। एक ही प्रकारके वर्णवाली या गंधवाली अलग अलग योनि है वह व्यक्तिभेदसे / उदाहरण स्वरूप एक समान रंगवाले 100 घोडे व्यक्तिभेदसे में ही माने जाते हैं। 469. योनिकी संख्यावाली गाथाएँ कहकर 3223 से लेकर 3.25 वीं गाथाओंका स्वरूप समाप्त करके फिर ये गाथाएँ प्रस्तुत होती तो ? 470. एक ही समान रंगवाले 100 घोडे. भी. बातिभेद से एक ही जातिके गिने जाते हैं, वैसे अलग अलग असंख्य योनियाँ भी समान वर्णादिककी अपेक्षासे... संख्यासे एक ही योनि गिनी जाती है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy