SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 561
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * अंगुल संबंधी चर्चाका समाधान * गुलसे एक प्रमाणांगुल' होता है। _इस तरह अपेक्षासे हजार उत्सेधांगुलसे अथवा विष्कम्भयुक्त ऐसे प्रमाणांगुलसे [400 उ०] शाश्वत पृथ्वी-पर्वत-विमानादिक प्रमाण मापनेके कहे हैं उसे मापें / इस बाबतमें मतांतर है उसे गाथा 314 के विशेषार्थमें बताया हैं / दूसरी शंकाका समाधान-अब ग्रन्थकारने 'उस्सेहंगुलदुगुणं' नियम बांधा है उस नियमसे भगवानकी सात हाथकी कायाके हिसाबसे वीर भगवान स्वात्मांगुलसे 84 अंगुल होते हैं उसमें तो शंकाको स्थान नहीं हैं / लेकिन जिनके मतसे भगवान 108 आत्मांगुल [स्वहस्तसे 3 // हाथ] ऊँचे हैं वे तो इस ग्रन्थकारके 'उस्सेहंगुलं' मतसे अलग ही पड़ते हैं, क्योंकि उनके मतसे दो उत्सेधांगुलसे एक वीरात्मांगुल नहीं किन्तु त्रिराशिके हिसाबसे 12 उत्सेधांगुलसे एक वीरात्मांगुल होते हैं, अतः स्पष्ट मतांतर ही मानना पड़ेगा। तीसरी शंकाका समाधान-जिनके मतसे भगवान 120 स्वात्मांगुल हैं उनका मत भी देखनेसे अलग ही पडता है, परंतु समचतुष्क क्षेत्रफलके हिसाबसे 'उस्सेहंगुलदुगुणं' नियम चरितार्थ होता है / वह इस तरह भगवान स्वात्मांगुलसे 120 अंगुल हैं उसे 24 से बटा करने से (120 अंगुलके) पांच हाथ आए, उसे समचतुरस्र बाहा प्रतिबाहारूप क्षेत्रगणितसे उतनेसे (545=) गुननेसे 25 होता है / अब श्री महावीरका देह सात हाथ हैं, उसका क्षेत्रफल [747] 49 हाथ आता है / हाथ, पण्हि, एडीकी किंचित् वृद्धि करनी चाहिए इससे 50 हाथ होते हैं / इन पचासका आधा करनेसे 25 हाथ आवें, २५का क्षेत्रफल 5 हाथ आनेसे प्रथम कहे अनुसार 120 आत्मांगुल होनेसे दो उत्सेधांगुलसे एक वीर आत्मांगुल प्राप्त हुआ। - परंतु बाहा गणित उस समचतुरस्र क्षेत्रफलकी अपेक्षासे विचारेंगे तो तो भगवंतका एक आत्मांगुल, 1 उत्सेधांगुल और दूसरे उत्सेधांगुलके पाँचवें दो भाग अर्थात् 13 उत्सेधांगुल प्रमाणका होगा क्योंकि भगवंतको उत्सेधांगुलसे 168 अंगुल तो कायम रखने हैं ही, परंतु आत्मांगुलसे जो 120 अंगुल कहने हैं उसके लिए आत्मांगुल 120 और 168 उत्सेधांगुलके बिच बँटवारा करना पडेगा अर्थात् 120 आत्मांगुलके 168 उत्सेधांगुल, तो एक आत्मांगुलके कितने ? इसके जवाबमें 13 प्रमाण वीरात्मांगुल होंगे। इस तरह समझने योग्य हकीकतें कहीं, इसकी अधिक चर्चा अंगुलसित्तरीसे समझना / [318] .. अवतरण-अब चार गति आश्रयी जीवोंकी योनिसंख्या कहते हैं /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy