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________________ * 138. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . यहाँ प्रथम सूक्ष्मनिगोद [ सूक्ष्म साधारण वनस्पति ]का शरीर अंगुलका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण, उससे असंख्यातगुना एक सूक्ष्म वायुकाय जीवका, उससे असंख्यातगुना एक सूक्ष्म अग्निकायका, उससे असंख्यातगुना बड़ा सूक्ष्म अप्कायका, उससे असंख्यातगुना सूक्ष्म पृथ्वीकायका समझना। उससे भी असंख्यातगुना एक वादर वायुकायका, उससे असंख्यातगुना एक बादर अग्निका, उससे असंख्यातगुना बादर अप्कायका, उससे असंख्यातगुना बादर पृथ्वीकायका, उससे भी असंख्यातगुना बड़ा अनुक्रमसे बादर निगोदका जाने / यहाँ असंख्याताके असंख्याता भेदो होनेसे उत्तरोत्तर अंगुलका असंख्यभाग, असंख्यातगुना बड़ा सोचें / ___और प्रत्येक वनस्पतिकायका शरीर साधिक हजार योजनका होता है। ऐसी बड़ी. अवगाहना, गहरे जलाशयोंकी कमल आदि वनस्पतिमें ही मिलेगी। परंतु पृथ्वी पर अन्य किसी वृक्षपंक्तिकी नहीं मिलेगी। इस तरह एकेन्द्रियकी अवगाहनाका वर्णन किया / ____ इन जीवोंके देहमानके अल्पबहुत्वमें उत्तरोत्तर असंख्यगुण शरीर बताया है तो अंतिम बादर निगोदका बहुत बड़ा हो जाएगा क्या है इसका उत्तर यह है कि-उत्तरोत्तर अपेक्षासे भले बड़ा हो, लेकिन अंतमें तो अंगुलके असंख्य भागका ही होता हैं, स्वस्वशरीर स्थानमें तमाम जीव अंगुलके असंख्येय भाग प्रमाण ही जाने / [293-294 ] __ अवतरण-यहाँ शंका होती हो कि पूर्वोक्त जीर्वोके देहमान उत्सेधांगुलसे बताये; जबकि समुद्र तथा पद्मद्रहादि जलाशयोंके मान तो प्रमाणांगुल. मानवाले [ अर्थात् उत्सेधांगुलसे चारसौ गुने बडे ] हैं, तो उत्सेधांगुलके मानवाले वनस्पत्यादिकके हजार योजनका मान प्रमाणांगुलसे निष्पन्न हजार योजन गहरे, समुद्र-द्रहादिकमें कैसे घटेगा ? क्योंकि द्रहमान तो शरीरमानसे चारसौ गुना गहरा होता है, तो फिर उसमें हजार योजनसे अधिक मानवाली वनस्पतिकाय रूप वनस्पतिका संभव किस तरह हो सके ! उसके समाधानके लिए ग्रन्थकार जणाते है कि 439. यह अभिप्राय श्री चन्द्रिया संग्रहणीका है और उसके टीकाकार देवभद्रसू रिजीने उसके समर्थनमें भगवतीजी श० 19, उ. तीसरेका पाठ भी प्रस्तुत किया है। जब कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी ऊपरके विधानसे अलग पडते हैं / वे तो उनकी संग्रहणीकी वणंतसरीराणं एगं निलसरीरगं पमाणेणं (गा० 311) इस गाथाका 'अनन्त शरीरी साधारण वनस्पतिकायके जीवोंका जो शरीर प्रमाण वही प्रमाण वायुकायके शरीरका ऐसा स्पष्ट कहते हैं / और उसकी टीका कहते हुए सार्वभौम टीकाकार श्री मलयगिरिजी 'यावत्प्रमाणं साधारणवनस्पति शरीरं तावत्प्रमाणमेव वायुकायिकैकजीवशरीरमिति' ' इस तरह निश्चयात्मक रीतसे स्पष्ट व्याख्यान करते हैं / .. .
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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