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________________ * 130 . . श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * गाथार्थ-वही कायस्थिति वनस्पतिमें भी अनंता [ उत्स० अवस०] समझना / विकलेन्द्रियमें संख्याता वर्ष सहस्रकी तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंचमें उत्कृष्ट सातसे आठ भवकी जानना। // 29 // विशेषार्थ-एकेन्द्रियके पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वाउकाय तथा वनस्पतिकाय इस तरह पांच भेद हैं। इनमें प्रथमके पृथ्वी आदि चारों जीव सूक्ष्म और बादर ये दो प्रकारके हैं। पुनः इस पांचवीं अंतिम वनस्पतिकायको दो जाते हैं, एक प्रत्येक वनस्पति और एक साधारण वनस्पति / प्रत्येक वनस्पति एक शरीरमें एक जीववाली है जबकि साधारण यह एक शरीरमें अनंता जीववाली है। इस साधारण वनस्पतिके जीवोंका शरीर इसे ही दूसरे शब्दोंमें अनंतकाय अथवा निगोद रुपमें पहचाना जाता है। इसमें प्रत्येक वनस्पति बादर ही होती हैं जबकि साधारण वनस्पति [अथवा निगोद ] वह सूक्ष्म [निगोद ] और बादर [ निगोद ] इस तरह दो भेदमें है। गाथामें कही सांव्यवहारिककी कायस्थिति यहाँ ग्रन्थकारने गाथामें जो अनंती उत्सर्पिणीकी-अवसर्पिणीकी स्थिति बताई है वह सामान्यतः ओघसे पाँचवीं वनस्पतिकायकी [ वह प्रत्येक साधारण, सक्ष्म या बादरकी विवक्षाके बिना ही ] बताई है, तथा उसे सांव्यवहारिक निगोद जीव आश्रयी बताई है [ क्योंकि प्रायः सर्वत्र सांव्यवहारिकाश्रयी ही वर्णन आता है] तथा वही स्थिति सूक्ष्म सांव्यवहारिकको घटती है। इसी स्थितिको क्षेत्र तुलनासे घटित करें तो अनन्ता लोकाकाशका आकाश प्रदेशप्रमाण [ अर्थात् प्रति समय एक एक आकाश प्रदेश अपहरते जितने समयमें वह निर्मूल हो उतना समय वह ] और वह असंख्य पुद्गल परावर्तकाल प्रमाण है और उस पुद्गल परावर्तका असंख्यत्व एक आवलिकाके असंख्य भागके समयकी संख्या तुल्य है / यहाँ कालसे अनादि अनंत अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी, क्षेत्रसे अनन्ता लोकाकाश-प्रदेश-असंख्य पुद्गलपरावर्त [ जो आवलिकाके असंख्य भागके समय तुल्य है ] इन चारोंकी व्याख्या तुल्य कालको सूचित करनेवाली हैं। असांव्यवहारिक अर्थात् क्या ? अर्थात् जो जीव अनादिकालसे सूक्ष्म निगोदमें पडे हैं, किसी भी समय तथाविध सामग्रीके अभावमें बाहर निकलकर व्यवहार राशि-[ वह 436. इसीलिए मरुदेवा माता के लिए विरोध उपस्थित नहीं होगा, क्योंकि वह तो अनादि [असांव्य०] निगोदसे आए थे / जबकि मूल गाथा तो मर्यादित समय बताती है अतः आदि हो सके वैसा है और यदि यह कथन असांव्यवहारिक (अव्यवहारिक राशि) को लागू करे तो मरुदेवा माताके लिए दोष उपस्थित हो, यह न हो इसलिए सांव्यवहारिककी समझना।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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