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________________ .. प्रगटप्रभावक श्री अजाहरा पार्श्वनाथाय नमः // // तिर्यंच जीवोंकी संक्षिप्त पहचान। परिशिष्ट सं. 11 // . सूची - यहाँसे चौथी तिर्यच गतिका संक्षिप्त अधिकार शुरु होता है। उसके पहले तिर्यच जीवोंका परिचय देना चाहिए। यद्यपि श्वेताम्बर संघमें अध्ययनका वर्तमान क्रम ऐसा है कि प्रथम जीवविचारादि प्रकरण पढकर बाद में ही संग्रहणी जैसे ऊपरके ग्रन्थ पढे जाते है, इससे लाभ यह होता है कि-प्रस्तुत प्रकरणोंमें चारों गति तथा मोक्ष विषयक प्राथमिक उपयोगी हकीकतें होनेसे उसका उसने अध्ययन किया होता है, फिर इस ग्रंथको पढनेसे बहुत सरलता और आनंद होता है। अतः ऊपरके इस ग्रंथमें सर्व बाबतों का पुनरावर्तन नहीं होता, फिर भी पढे, न पढे सबके लाभके लिए तिर्यच जीवों का संक्षिप्त परिचय देता हूँ, जिससे सविशेष रस, आनंद और सुलभता बढने पावे। जगतवर्ती संसारी जीव दो प्रकारके हैं। एक स्थावर और दूसरा प्रस। स्थावर-तापादिकसे पीडित होनेसे स्वइच्छापूर्वक गमनागमन कर न सके वह / स-इच्छापूर्वक [तापसे पीडित होने के कारण छायामें तथा ठंडीसे पीडित होनेके कारण तापमें] गमनागमन करनेवाले वह। यहाँ जीवोंका मूलस्थान अनादिकालसे 'निगोद' है जो एकेन्द्रिय जीवका ही भेद है। और इस तरह एकेन्द्रियके भवों का परिभ्रमण करने के बाद त्रसस्वरुप विकलेन्द्रिय के भवमें जीव क्रमश: आते है। प्रथम स्थावर-एकेन्द्रिय के भेद कहें जाते है। __ स्थावर जीव एकेन्द्रिय कहलाते है, क्योंकि उसे एक ही इन्द्रिय ( स्पर्शमात्र ) होती है और वह पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वाउकाय और वनस्पतिकायके भेदसे पांच प्रकार रूप है। पुनः वनस्पतिकाय, साधारण तथा प्रत्येकसे दो भेदवाली है। पुनः [प्रत्येक वनस्पति भेद वय॑ ] पांचों स्थावरों के 'सूक्ष्म' और 'बादर' इस तरह दो भेद पडते है, अतः कुल 10 भेद हुए। और प्रत्येक वनस्पति तो बादर ही होनेसे उसका सिर्फ एक भेद जोडनेसे कुल 11 भेद स्थावर जीवों के है। उसे पुनः पर्याप्ता-अपर्याप्ता विभागमें सोचने पर कुल बाईस भेद एकेन्द्रिय-स्थावरोंके होते है। सूक्ष्म स्थावर-अर्थात् अनंता सूक्ष्म जीवोंका समुदाय एकत्र हो तो भी [ सूक्ष्मनामकर्मके उदयसे अत्यंत सूक्ष्मत्व रहता होनेसे ] हमारे चर्मचक्षुसे देखा न जा सके वह। ये पांचों पृथिव्यादि सूक्ष्म स्थावर चौदह राजलोकमें काजलकी डिबियाकी तरह ठाँस ठाँस कर अनंतानंत भरे हैं, पौद्गलिक पदार्थोंसे कोई भी स्थल मुक्त नहीं है, तथा ये जीव मारने पर भी मरते नहीं हैं, हनने पर हन्यमान नहीं। उसमें भी सूक्ष्म साधारण वनस्पति सूक्ष्म निगोदके नामसे भी परिचित है / [ जिसका कुछ स्वरूप वर्णन 301 वीं गाथा आएगा।] ये जीव भी अनंता हैं। इन सब सूक्ष्म जीवोंकी भव-आयुष्य स्थिति अंतर्मुहर्त की है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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