SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 513
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * सिद्ध गति विषयक दसवाँ परिशिष्ट * .117. % 3D लिप्त जीव संसार- रूप जलमें डुबा रहता है, परंतु सम्यग्दर्शनादिके रत्नत्रयी रूप जलके संसर्गसें प्रतिबंधक कर्मरूपी माटी द्रव्य का संग दूर होते ही ऊर्ध्वगति करता है / / 3. बन्धछेद हेतु-बन्धनके छेदसे समझाया जाता दृष्टांत बन्धछेद हेतु है / जिस तरह परंडके कोश-संपुट-(फली में रहा एरंडबीज 27 आतापके-शोषणादिक हेतुसे, बन्ध संपुटका उच्छेद होते ही ऊर्ध्व उड़कर, शीघ्र बाहर निकलकर दूर पडता है, उसी तरह अहिंसा, संयम, तपादिकके उच्च धर्माचरणसे कर्मरूपी बन्धन छिद जाने पर मुक्तिगामी आत्माकी भी उसी प्रकार सहसा ऊर्ध्वगति ही होती है। इस तरह होने पर आत्मा अपने असल घरमें जा पहुँचती है और फिर कभी घर बदलने का रहता ही नहीं है और वहाँ अनंतकाल तक, अनंत सुखोंका उपभोग करता है / 4. ऊर्ध्वगौरव अथवा तथागति परिणामहेतु-जीव तथा पुद्गल ये दोनों द्रव्य स्वाभाविक तौर पर गतिशील हैं / दोनोंमें फर्क इतना ही है कि-जीव ऊर्ध्वगौरवधर्मा (अर्थात् ऊँचे जानेके स्वभाववाले) तथा पुद्गल स्वभावसे ही अधोगौरवधर्मा (नीचे जानेके या तिर्यक् जानेके स्वभाववाले) हैं / जिस तरह पाषाणकी अधोगति, वायुकी तिर्यक्गति तथा अग्निज्वालाकी ऊर्ध्वगति स्वभावसे ही साहजिक है उस तरह इन जीवोंकी ऊर्ध्वगति स्वभावसे ही है, फिर भी इनका गतिवैकृत्य अर्थात् कभी गति न करनी, टेढा-मेढा -तिरछा परिभ्रमण जो कुछ देखा जाता है वह प्रतिबन्धक कर्मद्रव्य के संगके कारण और अन्य की प्रेरणासे ही / तात्पर्य यह हुआ कि-कर्मजन्यगति ऊर्ध्व, अधो, तिर्यक तीनों रीतसे होती है और कर्मरहित मुक्तात्माकी सिर्फ ऊर्ध्वगति ही हो सकती है, दूसरी नहीं ही / तब जीवके ऊर्ध्वगमनका साहजिक स्वभाव यह चौथा हेतु हुआ। चारित्रवान ऐसे मुनिमहात्माकी आत्मा मोक्षमें जाते वक्त२८ सर्वांगसे निकलती है। - देह मेंसे आत्मा निकलकर मोक्षमें जाए तब 29 अस्पृशद्गतिसे अर्थात् बीचके या आजूबाजूके किसी भी आकाश प्रदेशोंको स्पर्श किये बिना ही ऋजुगतिसे सीधा ही एक समय पर मोक्षमें जाता है क्योंकि तब ही एक समयमें सिद्धि हो सके / जहाँ एक सिद्ध है वहीं अनंत सिद्ध हैं / सामान्यतः सिद्धके संस्थान नहीं हो सकता तो भी पूर्वभव की अपेक्षासे औपाधिक आकारका स्थूलसे व्यपदेश किया जा सकता है / अरूपी द्रव्य होनेसे वास्तविक रूपमें नहीं दी। सिद्ध आत्माके अष्टकर्म क्षय होनेसे अष्ट महागुणोंकी प्राप्ति होती है। इनमें 1. ज्ञानावरणीय कर्मक्षयसे अनन्तशान / 2. दर्शनावरणीय कर्मक्षयसे अनन्तदर्शन। 3. वेदनीय कर्मक्षयसे अनन्तसुख / 4. मोहनीय कर्मक्षयसे शुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व तथा क्षायिक चारित्र / 5. आयुष्य कर्मक्षयसे अक्षयस्थिति / 6. नामकर्मक्षयसे अरूपीपन / 7. गोत्रकर्मक्षयसे अनन्त अवगाहना। 8 अंतराय कर्मके क्षयसे अनन्तवीर्यशक्ति / ___427. यहाँ यन्त्रबन्धन, काष्ठ. और पैडाच्छेदका दृष्टांत भी घटाते है / 428. मृत्युकाल पर तमाम आत्मप्रदेशो पगमें जमा हो जाते हैं और अंतमें वहाँसे आत्मा निकले तो नरकमें, जंघासे निकले तो तिर्यच योनिमें, छातीसे निकले तो मनुष्यमें, मस्तकमेंसे निकले तो देवगतिमें जाता है। [-स्थानांग सूत्र. 5.] 429. यहाँ उववाई, महाभाष्य और पंचसंग्रहकी वृत्तिके मतांतर भी हैं।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy