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________________ * सिद्ध गति विषयक दसवाँ परिशिष्ट * * 115 * द्वारा निर्जरा-क्षय कर डालते हैं / इस तरह बंधे कर्मोको नष्ट करनेकी सामान्य स्थूल प्रक्रिया. समझाई। इसी तरह सर्वश होनेवाली आत्मा आठ कर्मो से चार घाती कर्मों के बंद-हेतुओंका अभाव और निर्जरा इन दो पुरुषार्थ द्वारा सामान्य नहीं लेकिन आत्यन्तिक क्षय कर देता है। इन चारमें ऊपर कहा गया वैसे मोह सबसे अधिक बलवान कर्म है। अतः सबसे प्रथम उसका सर्वथा विनाश हो। तत्पश्चात् ही शेष घातीकर्मीका नाश शक्य और सुलभ बन जाता है / अतः साधक प्रथम अध्यवसायोंके ऊर्धमान विशुद्ध परिणामसे, राग-द्वेषादि स्वरूप मोह योद्धेको सख्त शिकस्त-पराजय देकर* पश्चात् अंतर्मुहूर्त में ही शेष तीन घाती कर्मोंका शीघ्र सर्वथा नाश करता है / अर्थात् आत्मप्रदेशमेसे हमेशाके लिए विदाय लेते हैं / प्रतिबंधकोंके कारण नष्ट होते ही उस उस कार्यरूप आवरण भी नष्ट हुए और उसी समय विश्वके त्रैकालिक समस्त द्रव्य पदार्थ और उनके पर्याय अवस्थाओंको आत्मसाक्षात् करनेवाले अथवा प्रकाश फैलानेवाले अनंत ऐसे केवलज्ञान-केवलदर्शन, दूसरे शब्दों में सर्वशत्व और सर्वदशित्वको प्राप्त करते हैं। इतनी सीमा पर पहुँचने पर भी अभी जीवको मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ, क्योंकि आठमें से चार घाती कर्म नष्ट हुए लेकिन वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र इन चार कर्मोंका उदय चालू है और 'मोक्ष' तो संपूर्ण कर्मके क्षयको ही कहा जाता है, जिसे आत्यन्तिक कर्मक्षय कहना है। सामान्यतः तो प्रतिसमय नये नये कर्मों का बंध और बद्धकर्मका अनेकशः क्षय तो हुआ ही करता है। लेकिन नवीन कर्मबंधको रोके बिना अनुदयमान सत्तागत पडे पुराने कर्मों का सर्वथा क्षय अशक्य होनेसे, आत्यन्तिक क्षयकी योग्यता अभी उपस्थित ही नहीं हुई और मोक्ष प्राप्ति तो कृत्स्नकर्मके क्षयके बिना शक्य ही नहीं है / अर्थात् उदयमान, अनुदयमान कर्मकी निर्जरा और नये कर्म बांधनेकी योग्यताका अभाव होना चाहिए / यहाँ सर्वशत्व और वीतरागत्व दोनों वर्तमान हैं फिर भी चार पंगु अघाती कर्म जिनसे आत्मा देहके द्वारा अन्यान्य प्रवृत्तियाँ कर सकती है वह तो विद्यमान है अतः उन कर्मोंका भी आत्यन्तिक क्षय जब कर डालती है अर्थात् आठों कर्म आत्मप्रदेशोंमेंसे सर्वथा क्षीण हो जाय तब ही संपूर्ण कर्मक्षय' हुआ कहा जाए / आगे किसी कालमें नया कर्म बंधन होनेवाला नहीं है अतः संसार नहीं है। संसार नहीं है अतः 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं' की परंपरा भी नहीं है। . जिस तरह बीजके जल जानेसे अंकुर नहीं उगता उसी तरह कर्मबीज जल जानेसे जन्मांकुर नहीं उगता / जसे दग्ध काष्ठकी अग्नि उपादान कारणरूप काष्ठसमूहके अभावमें स्वयमेव निर्वाण पाता है, उसी तरह सर्व कर्मके क्षयसे कर्मरूप काष्ठसमूहके अभावमें वह आत्मा स्वयमेव निर्वाण (मुक्ति) पाती है। ____सर्व कर्मसे मुक्त होनेपर आत्माके अन्तिम समयका कर्म जिस समय क्षीण हो, उसीके साथ उस देहमेंसे आत्मा निकल जाती है / अन्तिम प्रस्तुत शरीरका त्याग करता है। जिस आकाशप्रदेश पर रहकर मृत्यु हुई उस प्रदेशकी समश्रेणी में ही सीधा ही चौदह राजलोकके ऊर्ध्वभागमें अन्तिम स्थल पर वर्तित सिद्धशिला पर आए लोकान्त में जहाँ _* यहाँ तक आत्मा सिर्फ छद्मस्थ वीतराग दशावाला है, अभी सर्वश नहीं हुआ /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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