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________________ .108. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * %3 मध्यम अवगाहनावाले जीवो कहलाते हैं / सामान्य ऐसा नियम है कि-अन्तिम समयमें मनुष्य के मूलशरीरकी जो अवगाहना हो उसके तीसरे भागकी हीन अवगाहनामें वे जीव मोक्षमें उत्पन्न होते हैं, अतः 500 धनुषकी उत्कृष्ट कायावाले जीव चौदहवें गुणस्थानकमेंअयोगी अवस्थामें शैलेशीकरणके समय, सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती ध्यानके बलसे अपने शरीरके मुख-उदरादि सारे पोले भागोंको स्वात्म प्रदेशोंसे पूरा करते हैं / और सर्व आत्म प्रदेशोंको एकत्र करनेपूर्वक प्रदेशघन करनेसे ( जो शरीर विस्तृत था, उसके पोले भाग पूरित हो जानेसे तीसरे भागसे हीन हुआ, क्योंकि प्रायः स्वशरीरमें तीसरे भागका पोलापन होता है / ) 500 धनुषकी कायाका मान तीसरे भागसे हीन होनेसे 333 धनुष और एक धनुषका तीसरा भाग-अथवा एक कोसका छठा भाग इतना हुआ / इसी अवगाहनामें ये जीव लोकान्तमें आए सिद्धस्थानमें उत्पन्न होते हैं, अतः इस सिद्धस्थान पर पहुँचने के बादकी परम-उत्कृष्ट अवगाहना एक कोसके छठे भाग ( 3333 ध० ) की जाने / // इति उत्कृष्टावगाहना // मध्यमअवगाहना, वह सात हाथके शरीरवाली आत्मा ( जिस तरह प्रभु महावीर) सूक्ष्म ध्यान बलसे पूर्वोक्त रीतसे प्रदेशघन करनेपूर्वक तीसरे भागसे हीन होनेसे सिद्ध में उत्पन्न हो तब 4 हाथ और 16 अंगुलकी होती है ऐसा शास्त्रमें कहा है / सचमुच तो जघन्यसे आगे और उत्कृष्टसे अर्वाक, वह सर्व मध्यम अवगाहना ही कहलाती है / फिर भी आगममें निश्चितरूपसे ( 4 हाथ-१६ अं० ) कही है अतः इस प्रकार यहाँ कहा है। // इति मध्यमावगाहना // सिमटी कायावाली थीं अतः उस समय 500 धनुष जितनी ऊँचाईवाली थीं। [भाष्यकार मत ] संग्रहणी वृत्ति (श्री चन्द्रियाकी गाथा 207 ) कारने तो स्पष्ट अभिप्राय देते हुए बताया है कि 'आगममें जघन्यमान सात हाथ और उत्कृष्ट पांचसो धनुष कहा है वह प्रायः वैसा होता है ऐसा समझना लेकिन एकांत नियम न समझना' अर्थात् जघन्यमें अंगुल पृथक्त्व और उत्कृष्टमें धनुष पृथक्त्वसे न्यूनाधिक भी हो सकता है / और इसके लिए 'सिद्धप्राभत' का प्रमाण दिया है। सिद्धप्राभूतमें-"...पंचेव धणुसयाइं, धणुह पुहुत्तेण अहिआइं” एतत्टीकाव्याख्या च"पृथकत्व शब्दो बहुत्ववाची, बहुत्वं चेह पञ्चविंशतिरूपं द्रष्टव्यमिति" इससे यह सिद्ध हुआ कि सिद्धप्राभूतकारने पृथक्त्वका अर्थ 25 धनुष अधिक किया है / इस तरह खुलासे किये हैं / 422. इस अवगाहनाको मध्यम अवगाहना कही इसे उपलक्षणवाली जाने अर्थात् जघन्य-उत्कृष्टके बीचकी तमाम अवगाहनाओंका ग्रहण समझ लें / यहाँ शंका उपस्थित होगी कि ऊपर निश्चितरूपसे मध्यम अवगाहनाका प्रमाण कैसे कहा जा सके ? तो खुलासा यह है कि-तीर्थकर जसे विशिष्ट व्यक्तिको उद्देश्य करके मध्यम अवगाहना बतानेकी इच्छासे यह प्रस्ताव रखना पडा है, परंतु वास्तविक रूपमें वैसा न समझना / अन्य केवलिओंकी अनेक रीतसे अवगाहना हो सकती है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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