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________________ * समूच्छिम और गर्भज मनुष्य का स्वरुप * दूसरी व्याख्या ऐसी भी है कि तीनों लोक में तमाम बाजुओं से देह के अवयवों की रचना हो उसे संमूच्छिम जन्म कहा जाता है / दो शरीरों के संबंध से आत्मा की जो परिणति होती है उसे ही 'जन्म' कहा जाता हैं / यहाँ बाह्य और आध्यात्मिक पुद्गलों के उपमर्दन से जो जन्म हो वह संमूर्च्छन जन्म कहा जाए / ___काष्ठ की त्वचा, फल आदि पदार्थों में उत्पन्न होते कृमि आदि प्रकार के जो जीव हैं वे, उन्हीं काष्ठ, फल आदि में वर्णित पुद्गलों को शरीर रूप में परिणत करें उन्हें बाह्य पुद्गल के उपमर्दनरूप जानें / इस तरह जीवित गाय आदि के शरीर में उत्पन्न होते कृमि आदि जीव. उसी जीवित गाय आदि के शरीर के अवयवों को ग्रहण करके, अपने शरीररूप परिणाम को प्राप्त करे, उसे आध्यात्मिक पुद्गल के उपमर्दन रूप संमूर्च्छन जन्म समझना / गर्भजन्म-( पुरुष का) शुक्र और (स्त्री का) शोणित दोनों के मिलन के आश्रय रूप प्रदेश को 'गर्भ' कहा जाता है / और उस स्थान में उत्पन्न होनेवाला जीव 'गर्भज' कहा जाता है / इसे ही जरा अधिक स्पष्ट करें / स्त्री-पुरुष के मिथुन संयोग के बाद स्त्री की योनि में कोई जीवात्मा शीघ्र उत्पन्न होकर, तुरंत ही प्रथम क्षण में शुक्र और शोणित को -- माताने खाए हुए आहार को आत्मसात् करनेवाला, अर्थात् स्वशरीररूप में परिणत करनेवाला वह 'गर्भज' जीव कहा जाता है / .. उपपातजन्म-परस्पर के मैथुन संयोग के बिना, उस उस क्षेत्र-स्थान निमित्त को पाकर एकाएक अंगुल के असंख्यातवें भाग में उत्पन्न होकर, शीघ्र मूल शरीरावगाह को धारण करना वह / ___ यह जन्म देवों तथा नारको के होता है / देव देवशय्या में तथा नारक वनमय .. भीत में रहे भयंकर आवासों में उत्पन्न होते है / . शंका-संमूच्छिम तथा उपपात दोनों के जन्म में स्त्री-पुरुष के संयोग की अपेक्षा नहीं है तो फिर दोनों को अलग अलग क्यों माने ? संमूछिन में ही समावेश किया जाय तो क्या ? 383. देखिए तत्त्वार्थ राजवार्तिक || 384. देखिए तत्त्वार्थ पृवृत्ति //
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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