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________________ * श्री बृहतसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . // नरकगति में नववाँ (9) आगतिद्वार // अवतरण-इस तरह आठवें गतिद्वार को कहकर, अब नववाँ आगतिद्वार अर्थात् नारक स्वआयुष्य पूर्ण करके कहाँ कहाँ उत्पन्न होते हैं ? और उत्पन्न होने के बाद कहाँ से निकलने वाले को क्या क्या लब्धियाँ प्राप्त हों ! यह कहते हैं। निरउव्वट्टा गम्भे, पजत्तसंखाउ लद्धि एएसि / चक्की हरिजुअल अरिहा, जिण जइ दिस सम्म पुह विकमा // 258 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 258 // विशेषार्थ-नरक गति में से निकले जीव-अनन्तर भव में पर्याप्ता-संख्याता वर्षायुषी-गर्भज (तिर्यंच मनुष्य) रूप में ही उत्पन्न होते हैं। इनके सिवाय संमू च्छिम मनुष्य, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, मनुष्य देवो नारको लब्धि अपर्याप्ता में और असंख्य वर्षायुपी युगलिक में उत्पन्न होते नहीं है / / अब जब वे, गर्भज मनुष्य-तिर्यंच रूप में उत्पन्न होते हैं तब उनके उत्पन्न होने के बाद क्या क्या लब्धि किन किन को प्राप्त होती है ? यह कहते हैं / इस लोक में चक्रवर्ती स्वरूप अगर नरक में से आकर उत्पन्न होनेवाला जीव हो तो वह, तथाविध भवस्वभाव से पहले ही नरक में से निकला होता है, मगर दूसरे किसी नरक में से नहीं, यह बात नरक की अपेक्षा से समझना / / बलदेव और वासुदेव-(यह हरि युगल) होनेवाले जीव, अगर नरक में से निकलकर होनेवाले हो तो पहले दूसरे ऐसे दो नरक में से निकलने वाले होते हैं, परंतु शेष नरकों में से नहीं / अरिहा-कहने से अरिहंत-तीर्थकर होनेवाले प्रथम के तीन नरक में से ही निकले होते हैं / शेष में से नहीं ही / जिन अर्थात् केवली होने वाले जीव, वह प्रथम के चार में से ही निकले हो सकते हैं, शेष में से नहीं ही / 381. प्रश्न-तीर्थकर और केवली में क्या फरक है ? तीर्थकर धर्ममार्ग के आद्य प्रवर्तक माने जाते हैं। शासन पर उनकी ही आज्ञा वर्तित है। जब कि केवली इस प्रकार नहीं होते / साथ ही तीर्थकर राजा है, अतः अतिशयादिक की विशिष्टताएँ हैं / जब कि केवली प्रजा में से है, अतः ये विशेषताएँ नहीं हैं / तथापि दोनों के ज्ञान में तुल्यता ( साम्य) जरूर है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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