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________________ * नारकों का तीसरा अवगाहना द्वार * .49. नारकों का तीसरा अवगाहना द्वार अवतरण-भवनद्वार कहने के बाद अब ग्रन्थकार नारकों का भवधारणीय तथा उत्तरवैक्रियादि शरीर का अवगाहना स्वरूप तृतीय द्वार शुरु करते हैं, जिसमें सबसे पहले भवधारणीय अवगाहना का प्रत्येक नारकी में ओघ से-समुच्चय तक का वर्णन करते हैं। पउणट्ठधणु छ अंगुल, रयणाए देहमाणमुक्कोसं / सेसासु दुगुण दुगुणं, पणधणुसय जाव चरिमाए // 244 // गाथार्थ-रत्नप्रभा में उत्कृष्ट देहमान पौने आठ धनुष और छः अंगुल समुच्चय होता है और शेष पृथ्वीमें [समुच्चय ] जानने के लिए उसी प्रमाण को दो-गुना दो-गुना करने से यावत् अंतिम पृथ्वी में पाँचसौ धनुष होते हैं / // 244 // विशेषार्थ-भवधारणीय शरीर किसे कहा जाता है ! इसकी व्याख्या तो हमने अपनी पूर्व गाथाओं के प्रसंगमें की है, फिर भी जीवनपर्यंत रहनेवाला स्वाभाविक जो शरीर होता है उसे भवधारणीय (वैक्रियशरीर) समझा जाता है / पहली रत्नप्रभा नरक पृथ्वीमें नारकियों का उत्कृष्ट देहमान पौने आठ धनुष [ 31 हाथ ] और ऊपर छः अंगुल का होता है, और शेष शर्कराप्रभादि में क्रमशः दो-गुनी वृद्धि करनी होनेसे दूसरी नरक में 15 // धनुष और 12 हाथ का, तीसरे नरकमें नारकों का भवधारणीय उत्कृष्ट देहमान 31 / धनुष, चौथे नरकमें 62 // धनुष, पाँचवें नरकमें 125 धनुष, छठे में 250 धनुष तथा सातवें नरकमें 500 धनुष का उत्कृष्ट देहमान है / इस प्रकार पश्चानुपूर्वी से अथवा उलटे क्रम से सातवें नरक से सोचना हो तो भी अर्ध-अर्ध कम करते-करते ऊपर जाने से मी यथोक्तमान आता है / [244] -- अवतरण-इस प्रकार ओघ से दर्शाकर प्रत्येक पृथ्वी के प्रत्येक प्रतर के देहमान को उत्कृष्ट से बताने के इच्छुक ग्रन्थकार प्रथम रत्नप्रभा के ही प्रत्येक प्रतर के लिए कथन करते हैं / रयणाए पढमपयरे, हत्थतियं देहमाणमणुपयरं / छप्पणंगुल सड्ढा, वुड्ढी जा तेरसे पुणं // 245 // गाथार्थ-रत्नप्रभा के प्रथम प्रतर पर तीन हाथ का उत्कृष्ट देहमान होता है / इसके बाद प्रत्येक प्रतर पर क्रमशः साढे छप्पन अंगुल की वृद्धि करें, जिससे तेरहवें प्रतर पर पूर्णमान [7|| धनुष छः अंगुल का ] आ सके // 245 //
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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