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________________ 24 . श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . मझे चिय पुढवि अहे, घणुदहिपमुहाण पिंडपरिमाणं / भणियं तओ कमेणं, हायइ जा वलय परिमाणं // 217 // गाथार्थ--विशेषार्थवत् // 217 // विशेषार्थ--इस के पहले गाथा 212-13 में घनोदधि 62 प्रमुख सारे पिंडोंका जो परिमाण बताया गया है वह तो नरक के अधोभागवर्ती पिंडोंका मध्यवर्ती मोटापन का नाप है, परंतु उस से पुनः जो परिमाण बताया गया है वह तो मध्यपिंडका 20 हजार का मोटापन जहाँ होता है, वहाँ से क्रमशः दोनों ओर नाप में हानि होती होती जो यावत् वलयान्त आता है वह उससे आगे के घनोदध्यादि का है। [ 217 3. अवतरण-अब प्रत्येक नरकवर्ती नरकावासाओं की संख्या का प्रमाण बताते हैं / तीस पणवीस पनरस, दस तिन्नि पणूणएग लक्खाई / पंच य नरया कमसो, चुलसी लक्खाई सत्तसुवि // 218 / / गाथार्थ--विशेषार्थवत् / / 218 // विशेषार्थ--नारकी जीवों को उत्पन्न होने के जो भयंकर स्थानक होते हैं उन्हें नरकावासा कहा जाता है। [ जिन का विशेष वर्णन आगे बताया जाएगा। ] पहली धर्मा पृथ्वी के नरक में नारकों की उत्पत्ति के लिए तीस लाख नरकावासा आये हुए है, दूसरी वंशा नारक में पचीस लाख, तीसरी शैला. में पन्द्रह लाख, चौथी अंजना में दस लाख, पाँचवीं रिष्टा में तीन लाख, छठी मघा में एक लाख में पाँच (5) कम अथवा (99,995), जब सातवीं माधवती में सिर्फ पाँच ही नरकावास होता है / इस प्रकार सातों पृथ्वियों के कुल मिलाकर चौरासी लाख ( 84,00,000) नरकावासा बनते है। (218) ३६२-किसी. को अगर शंका हो कि घनोदधि, घनवात और तनुवात की कभी करते जाना ऐसा जो कहा है और प्रमाण भी सिर्फ तीनों का ही बताया है तो वहाँ अवकाश का प्रमाण क्यों नहीं बताया गया है ? तो इस के समाधान में यह कहना हैं कि आकाश द्रव्य तो सर्वत्र व्याप्त है ही / जहाँ घनोदधि, घनवातादिक है वहाँ भी वह तो है ही, क्यों कि अवकाश (खालीपन) देना ही उसका स्वभाव. है / सर्वत्र व्याप्त पदार्थ का वास्तविक नाप हो ही सकता नहीं है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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