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________________ * नरकगतिविषयक द्वितीय भवनद्वार * * 19 . इसी प्रथम पृथ्वी में जो रत्नबाहुल्य कहा-बताया गया है इसे आप खरकांड के पहले रत्नकांडकी अपेक्षा से जान सकते हैं / यह रत्नप्रभा (प्रथम) पृथ्वी तीन हिस्सों में बँटी हुी है / पहला खरकांड (खर-कठिन, कांड-विभाग ) कठिन भूमि भाग विशेष, दूसरा पंकबहुलकांड और तीसरा अपबहुलकांड / पंक कीचड़ विशेष, अप्=जल विशेष युक्त जो है वह / इस में पहला खरकांड सोलह विभागों में बँटा हुआ है / 1 रत्नकांड, 2 वज्र, 3 वैडूर्य, 4 लोहित, 5 मसारगल्ल, 6 हंसगर्भ, 7 पुलक, 8 सौगन्धिक, 9 ज्योतिरस, 10 अंजन, 11 अंजन-पुलक, 12 रजत, 13 जातरूप, 14 अंक, 15 स्फटिक और 16 रिष्टरत्न-इस प्रकार हरेक नाम अपनी अपनी जाति के रत्न विशेष भू भाग से गर्भित होने से सान्वर्थक हैं / प्रत्येक काण्ड एक हजार (1000) योजन मोटा तथा 16000 योजन ऊंचा होता है / यह नाप 'प्रारंभ के खरकाण्ड का है, दूसरा पंकबहुलकांड 84000 योजन मोटा और तीसरा अप्जल बहुलकांड 80000 योजन मोटा होता है / . इस प्रकार तीनों संख्याओं को कुल मिलाने से प्रथम धर्मा ( रत्नप्रभा) पृथ्वी का मोटापन 1,80,000 योजन का हुआ / इन काण्डों की चर्चा इसी प्रथम पृथ्वी में ही है, शेष पृथ्वी में नहीं है / दूसरी शर्कराप्रभा--इस में बहुत से कंकरों का बाहुल्य होने के कारण, तीसरी वालुका-इस में रेती ( बालू का ) प्राधान्य होने के कारण सान्वर्थक है / इस प्रकार चौथी पंक-में कीचड़ का भाग विशेष होने से, पाँचवीं धूम-में अधिक धुआँ होने से, छठी तमः में आम तौर पर अंधकार होने से तथा सातवीं तमस्तम पृथ्वी में अंधकार ही अंधकार अर्थात् सिर्फ गाढ़ अंधकार ही होने के कारण वह भी सान्वर्थक है / ये सातों गोत्र सान्वर्थक हैं / इस प्रकार अनुक्रम से प्रत्येक पृथ्वी के गोत्र तथा आदि शब्द से काण्ड व्यवस्था भी बताई गयी है / अवतरण--अब प्रत्येक नारकी के मुख्य नाम तथा उसके संस्थान के आकार मी बताते हैं / घम्मा वंसा सेला, अंजण रिट्ठा मघा य माधवई / नामेहिं पुढवीओ, छत्ताइच्छत्तसंठाणा // 211 //
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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