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________________ छ आराओंकी व्यवस्था , गाथा 5-6 [ 39 उतने ही प्रमाणके आहारके तथाविध पसत्त्वसे उनको तीन दिन तक क्षुधा भी लगती नहीं है। इस आरेमें प्रवर्तमान मनुष्योंकी पसलियाँ 256 होती हैं / 2. सुषम आरा-जो आरा सुखमय है। अर्थात् प्रथम आरेकी अपेक्षा सुख अल्प होता है तो भी इस 'आरे में दुःखका अभाव है। यह आरा तीन कोडाकोडी (सू० अ०) सागरोपमका है। इस आरेके प्रारम्भमें मनुष्यका आयुष्य 2 पल्योपम, शरीरकी ऊचाई 2 कोस और पसलियोंकी संख्या 128 होती है। इस आरेमें उत्पन्न मनुष्योंको हर दो दिनों के बाद खानेकी इच्छा होती है; और इच्छाके साथ बेर जितने प्रमाणकी वस्तुओंका आहार करके तृप्ति पाते हैं। 3. सुषम-दुषम आरा-जिसमें सुख और दुःख दोनों हों वह अर्थात् सुख अधिक और दुःख कम हो ऐसा काल, उसे अवसर्पिणीका तीसरा आरा समझना। इस आरेका काल दो सागरोपमका है। इस आरेके प्रारम्भमें उत्पन्न मनुष्योंका आयुष्य 1 पल्योपम, देहकी ऊँचाई 1 कोसकी और पसलियोंकी संख्या 64 होती है। ये मनुष्य बेरसे विशेष प्रमाणवाला जो आँवला (आमलक ) होता है, उतने प्रमाणका आहार एक-एक दिनके अन्तरालमें ग्रहण करते हैं। इन तीनों 'आरों में अहिंसकवृत्तिवाले गर्भज पंचेन्द्रिय तिथंच (चतुष्पद और खेचर) तथा मनुष्य युगलधर्मी होते हैं। इसलिए तथाविध कालबलसे ही स्त्री-पुरुष [नर-मादा] दोनों जोड़ेमें ही उत्पन्न होते हैं और उन क्षेत्रयोग्य दिनोंके व्यतीत होने पर, वही युगल पति-पत्नीके रूपमें सर्व व्यवहार करते हैं। तथाविध कालप्रमाणसे युगलिक मनुष्यका यही धर्म होता है परन्तु कभी भी कोई दो पुरुष या दो स्त्रियाँ अथवा अकेला पुरुष या अकेली स्त्री उत्पन्न नहीं होते। इस प्रकार उत्पन्न हुए बालक-बालिकाका पति-पत्नीके रूपमें सम्बन्ध या प्रेम बिना विवाहके भी टिका रहता है, अतः वह 'युगलिकधर्मी' कहलाता है। ये युगलिक वऋषभनाराचसंघयणके धारक और समचतुरस्रसंस्थानवाले होते हैं। अनेक प्रकारके धान्यका सद्भाव होने पर भी उसका उपयोग नहीं करके दस प्रकारके कल्पवृक्षसे वे अपने सर्व व्यवहार चलानेवाले होते हैं / इस युगलिकक्षेत्रकी भूमि क्षुद्रजन्तुओंके उपद्रवसे तथा ग्रहणादि सर्व उल्कापातोंसे रहित है और वे शरीरसे बिलकुल नीरोगी होनेके साथ अलग अलग दस प्रकारके कल्पवृक्षोंसे सर्व प्रकारका निर्वाह करते हैं। ___ इन कल्पवृक्षोंके 1. मतांग, 2. भृतांग, 3. तुटितांग, 4. ज्योतिरंग, 5. दीपांग, 6. चित्रांग, 7. चित्ररसांग, 8. मण्यंग, 9. गृहाकार 10. अनियत-कल्पवृक्ष इत्यादि ५७ये 56. वर्तमान युद्ध में भी सैनिकोंको इस प्रकारके सत्त्ववाली गोलियां दी जाती हैं कि जिससे उनको एक सप्ताह तक क्षुधा नहीं लगती तो फिर प्राकृतिक शक्तिका पूछना ही क्या ? 57. ..................इन दस जातियोंमें प्रतिजातीय कल्पवृक्ष भी बहुत होते हैं / ये कल्पवृक्ष
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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